________________ षष्ठः सर्गः। 31 उपेन्द्राय / वादथ्ये चतुर्थी। क्षीराणि धीयन्तेऽस्मिन्निति क्षीरधिः क्षीरोदधिः। "कर्मण्यधिकरणे च" इति किप्रत्ययः। तस्य मन्थनात् मथनादुपायात् ; मन्थते. भौवादिकस्येदित्वान्नुमागमः / श्रीः रमा उद्गमिता उत्थापिता / ते अमराः अस्मै इन्द्राय / पूर्ववञ्चतुर्थी / इत्तुरस एवोदकं यस्य तमित्रसोदं नामाब्धिम् “उदकस्योदः संज्ञायाम्" इत्युदादेशः / विमथ्य मथित्वा अन्यां श्रियम् उत्थापयितुं न श्राम्यन्तु न प्रयस्यन्तु / द्वितीयया श्रिया त्वयैव उपेन्द्रवदिन्द्रस्यापि लक्ष्मीपतित्वे तयोरवैषम्याय देवतानां लक्ष्म्यन्तरसम्पादनप्रयासो न स्यादिति भावः / अत्रामराणां लचम्यन्तरोत्पादनप्रयत्नासम्बन्धेऽपि तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः // 40 // __इस इन्द्रको मत छोड़ी ( अवश्य वरण करो; क्योंकि ) जिन देवताओंने क्षीरसागरके मंथनसे इस इन्द्र के अनुज अर्थात् उपेन्द्र (विष्णु ) के लिये लक्ष्मीको निकाला, वे देवता इस इन्द्र के लिये इक्षुरस समुद्रको मन्थनकर दूसरी लक्ष्मीको निकालनेके लिये मत थकें / [ देवताओंने बहुत परिश्रमसे क्षीरसमुद्र के मन्थनसे लक्ष्मीको निकालकर इस इन्द्रके छोटे भाई विष्णुके लिये उसे दे दिया, अब यदि तुम इन्द्रको वरण नहीं करोगी तो बड़े भाई होने से अधिक पूज्य इस इन्द्र के लिये क्षीरसमुद्र से उत्पन्न लक्ष्मीसे भी अधिक सुंदरी लक्ष्मीको देने के लिये क्षीरसमुद्र से भी अधिक मधुर इक्षु-रस-समुद्रका मन्थनकर पूर्वापेक्षा श्रेष्ठ लक्ष्मीको निकालनेके लिये देवताओंको फिर परिश्रम करना पड़ेगा; अतएव तुम देवताओंको पुनः परिश्रम न करना पड़े, ऐसी कृपाकर इन्द्रको वरण कर लो। तुम विष्णुप्रिया लक्ष्मीसे भी अधिक सुन्दरी हो, अतः तुम्हें पाकर इन्द्र कृतकृत्य हो जावें] // 80 // लोकनजि द्यौर्दिवि चादितेया अप्यादितेयेषु महान्महेन्द्रः / / किंकर्तमर्थी यदि सोऽपि रागाजागति कल्या' किमतः परापि ||8|| लोकेति // लोकस्रजि स्वर्गादिलोकपंक्तौ द्यौः स्वर्गा महती। दिवि च अदित्या अपत्यानि पुमांसः आदितेयाः देवाः, महान्तः / कृदिकाराङीषन्तात् स्त्रीभ्यो ढक / आदितेयेप्वपि महेन्द्रो महान् / स महेन्द्रोऽपि रागात् किंकर्तुं सेवितुमर्थी इच्छुयदि / किंशब्दस्यास्य सर्वादिपठितस्य निपातितत्वाद्धातोः प्राक् प्रयोगः। अर्थयतेरिच्छार्थत्वात् समानकर्तृकेषु तुमुन् / अतोऽस्मादिन्द्रसेव्यत्वात् परा कक्ष्यापि उत्कृष्टावस्था च जागर्ति स्फुरति किम् ? न जागतीत्यर्थः / अत्र लोकादिषु पूर्वपूर्वापेक्षयोत्तरोत्तरस्योत्कर्षोक्तेः सारालङ्कारः / उत्तरोत्तरमुत्कर्षः सार इति लक्षणात् // 8 // (चौदहों ) भुवनों में स्वर्ग श्रेष्ठ है, स्वर्गमें देवता ( अदिति-कुमार ) श्रेष्ठ है, अदितिपुत्र देवोंमें इंद्र श्रेष्ठ हैं, वे इंद्र भी अनुरागसे ( बिना किसी प्रेरणा या दबावके तुम्हारा किङ्कर होना चाहते हैं ( तो) इससे आगे भो कोई श्रेणी जागरूक है ? अर्थात कोई नहीं। [इन्द्रके वरण करनेसे तुम्हें भूलोक छोड़कर श्रेष्ठ स्वर्गलोक मिलेगा, स्वर्गवासी गन्धर्व,