________________ 330 नैषधमहाकाव्यम् / मानेन। भाजपूर्वाबिजयतेश्वौरादिकायच। उपपीडमुपपीज्य गाढमालिय। "सप्तम्यां चोपपीड" इत्यत्र चकारात्ततीयोपपदी णमुलप्रत्ययः। "तृतीयाप्रमृतीन्य. न्यतरस्याम्" इति विकल्पादसमासः / अनामयं पृच्छति। "क्षत्रबन्धुमनामयम्" इति स्मरणादिति भावः / शेषः कार्यशेषस्तु त्वदाश्लेषकथया पूर्वोक्तवादालिङ्गनप्रसङ्गेन विनिद्रर्हषितैस्तस्येन्द्रस्य रोमभिर्भवत्यै संदिदिशे सन्दिशे सन्दिष्टः / कर्मणि लिट / त्वदालिङ्गनप्रार्थनैवान्तरं वक्तव्यः कार्यशेषोऽपीति भावः // 78 // ___ इन्द्रने विलासपूर्वक आलिङ्गनसे सम्यक् उपपीडितकर तुमसे अनामयको पूछा है तुम्हारे आलिङ्गनकी चर्चासे हर्षित इन्द्र के रोमोंने शेष सन्देशको तुम्हारे लिये कहा है / [ मनुस्मृतिके वचनानुसार क्षत्रियसे 'अनामय' पूछनेका धर्म होनेसे इन्द्रने आलिङ्गनपूर्वक तुम्हारा अनामय पछा है / तथा तुम्हारे आलिङ्गनके स्मरण होनेके कारण वे रोमाञ्चित होनेसे गद्गद होकर मुखसे और कोई बात नहीं कह सके हैं / तुम्हें इन्द्र हृदयसे चाह रहे हैं; अतः तुम उन्हींको स्वयंवर में वरण करना ] / / 78 // यः प्रेर्यमाणोऽपि हृदा मघोनस्त्वदर्थनायां हियमापदागः / स्वयंवरस्थानजुषस्तमस्य बधान कण्ठं वरण जैव' || 7 || य इति // हे भैमि, मघोनः इन्द्रस्य यः कण्ठस्त्वदर्थनायां विषये हृदा प्रेयमाणो. ऽपि हियमेवागोऽपराधमापत् / हीनस्याधिकं प्रति यामासङ्कोचेऽव्यपराध एवेति भावः / स्वयंवरस्थानजुषः स्वयंवरमागतस्य अस्येन्द्रस्य तमपराधिनं कण्ठं वरणस्रजा भर्तृवरणमालिकया त्वं बधान। ईशापराधिनामीहरबन्ध एव दण्ड इति भावः / सर्वथा लजां प्रविहाय प्रार्थनां कुर्वतो महेन्द्रस्य मनोरथपूरणं कार्यमिति तात्पर्यार्थः // 79 // (हे दमयन्ती ! ) इन्द्रके जिस कण्ठने तुम्हारी याचनाके लिये हृदयसे प्रेरित होते हुए भी लज्जारूप जिस अपराधको प्राप्त किया, स्वयंवरमें आये हुए इन्द्रके उस कण्ठको वरण मालासे ही (पाठभेदसे-वरणमालासे शीघ्र) बाँधो। [ हार्दिक इच्छा होनेपर भी लज्जावक्ष वे इन्द्र कण्ठसे कुछ नहीं कह सके, और मेरे द्वारा अपना सन्देश भेजा, अतः उस अपराधी कण्ठको स्वयंवरसे इन्द्रके आनेपर सब लोगों के सामने ही वरण-मालासे बांधकर कठोर दण्ड दो / अन्य भी किसी अपराधीको सबके सामने बाँधकर दण्डित किया जाता है, जिससे अन्य कोई कभी ऐसा अपराध न करे // इन्द्र तुम्हें हृदयसे चाहते हैं अतः स्वयंवरमें उन्हींको वरणमाला पहनाना ] // 79 // नैनं त्यज क्षीरधिमन्थनाचैरस्यानुजायोद्गमितामरैः श्रीः / अस्मै विमध्येक्षरसोदमन्यां श्राम्यन्तु नोत्थापयितं श्रियं ते || 80 // नेति // हे भैमि, एनमिन्द्रं, न त्यज / तथा हि, यैरमरैः अस्येन्द्रस्य अनुजाय १.'-सजाशु''-बजातु' इति पाठान्तरे /