________________ षष्ठः सर्गः। सर्वत्र संवाद्यमबाधमानौ रूपश्रियातिध्यकरं परं तौ। न शेकतुः केलिरमाद्विरन्तुमलीकमालोक्य परस्परंतु // 54 / सर्वत्रेति // तौ भैमीनलौ, रूपश्रिया सौन्दर्यसम्पदा, सर्वत्र सर्वावयवेषु संवाचं मिथस्संवादाई, परस्परानुरूपमित्यर्थः / अत एव परमत्यन्तमातिथ्यकर मिथः सत्कारकारि / अलीकमसत्यं परस्परन्तु कर्म आलोक्य / अबाधमानौ मिथ्यस्यमन्यमानौ, केलिरसात् क्रीडारागाद्विरतुं निवर्तितुं न शेकतुः, किरवलीकेनापि परस्परेण क्रीडितुमाचकांक्षतुरित्यर्थः // 54 // वे दोगे ( दमयन्ती तथा नल ) सौन्दर्य-सम्पत्तिसे सब अवयवों में परस्पर संवादके योग्य ( परस्पर अविरुद्ध अर्थात् मिलता जुलता हुआ / अतएव परस्परमें एक दूसरेका) अत्यन्त सत्कार करनेवाले अलीकको परस्पर देखकर असत्य नहीं समझते हुए क्रीडासे विरत नहीं हुए / अथवा अत्यन्त सौन्दर्य-शोभासे परस्परको अत्यन्त सुखकारक बहुत स्थानों में ( स्पर्शादिसे ) सत्यरूप मानते हुए वे दोनों (दमयन्ती तथा नल) असत्यको भी परस्पर देखकर क्रीडारससे विरत नहीं हुए। [ कुछ स्थानों में असत्य स्पर्शादि होनेपर भी अनेक स्थानोंमें सत्य स्पर्शादि होनेसे उन दोनोंने कीडाका त्याग नहीं किया ] // 54 / / परस्परस्पर्शरसोर्मिसेकात्तयोः क्षणं चेतसि विप्रलम्भः / स्नेहातिदानादिव दीपिकाचिनिमिष्य किञ्चिद्विगुणं दिदीपे // 5 // परस्परेति / तयोभैमीनलयोः, चेतसि विप्रलम्भो विरहः, परस्परस्पर्शरसस्य अन्योन्यस्पर्शसुखस्य, ऊर्मिभिः सेकात् क्षणं स्नेहस्य तैलादेरतिदानाद्दीपिकार्चिी. पज्वालेव किञ्चिदीनिमिष्य निवार्य, द्वौ गुणावावृत्ती यस्मिन् कर्मणि तद्यथा भवति तथा द्विगुणम्, अधिकं दिदीपे प्रजज्वाल / सोऽप्युद्दीपक एवाभूदित्यर्थः // 55 // ____ उन दोनोंके चित्तमें स्थित विरह आपसके स्पर्श-रसकी अधिकताके सींचनेसे ( पक्षान्तरमें-स्पर्शानन्दरूपी जलके तरङ्ग के द्वारा सींचनेसे ) क्षणमात्र कुछ संकुचित सा होकर अधिक स्नेह (प्रेम, पक्षान्तरमें-तैल ) के देनेसे दीपकके लौके समान फिर द्विगुणित होकर उद्दीप्त होने ( बढ़ने पक्षान्तरसे-जलने ) लगा। [ जैसे अधिक तेल डालनेसे दीपकका लौ पहले कुछ बुझता-सा होकर फिर द्विगुणित होकर जलने लगता है, वैसे ही अधिक प्रेमसे स्पशोदि सुख द्वारा वैसे ही क्षणमात्र शान्त भी उन दोनोंका विरह तत्काल ही अत्यन्त उद्दीप्त हो गया / मिलन नहीं होनेपर विरह उतना दुःसह नहीं हो तो, जितना मिलन होनेके बाद दुःसह होता है ] // 55 // वेश्माप सा धैर्यवियोगयोगाद् बोधश्च मोहञ्च मुहुर्दधाना / पुनः पुनस्तत्र पुरः स पश्यत् बभ्राम तां सुभ्रवमुज्रमेण // 50 // देश्मेति // सा भैमी, धैर्यवियोगयोर्योगाद्यथासंख्यं मुहुर्बोधश्च मोहश्च दधानेति यथासंख्यालङ्कारः / वेश्म निजावासमाप / स नलस्तत्र तां सुभ्रवं भैमीम् उद्ममेण