________________ 206 नेषधमहाकाम्बम् / अमयुक्त रतिपति (कामदेव ) के द्वारा छोड़े गये पुष्परूप बाण-समूह उस नलके धैर्यको पूजाके लिए चरितार्थ होकर व्यर्थ नहीं हुए। [ कामदेवके वाण छोड़नेपर भी नलके चित्तमें कोई विकार नहीं होनेसे यद्यपि बाणको व्यर्थ होना चाहिए था, किन्तु मुख्य लक्ष्य पूर्ण नहीं होनेपर भी नलके धैर्यकी पूजामें पुष्परूप वे बाण चरितार्थ हो गये, अर्थात् जैसे कोई व्यक्ति किसीके धैर्य आदि गुणकी पूजा करने के लिए पुष्प चढाता है, वैसे ही कामदेवके वे पुष्परूप बाण भी परस्पर अनुरागोत्पादन रूप मुख्य प्रयोजनके पूर्ण न होनेपर भी उन नलके धैर्यको पूजारूप अन्य प्रयोजनमें सफल हो गये। परस्त्रीमें अनुरागोत्पन्न न होनेके कारण शत्रुभूत कामद्वारा भी धैर्यको पुष्पोंसे पूजित होना उचित ही है ] // 23 // / हत्येव वत्म कामह भ्रमन्त्याः स्पर्शः स्त्रियाः सुत्यज इत्यवेत्य / चतष्पथस्याभरणं बभूव लोकावलोकाय सतां स दीपः // 4 // हिवेनि / सतां सः दीपः सुजनश्रेष्ठः, सतां भावानां प्रकाशकः प्रदीपश्च स नलः / इह अन्तःपुरे भ्रमन्त्यास्सनरन्त्याः स्त्रियाः स्पर्शः एकमभिन्नं वर्त्म हित्वैव सुत्यज इत्यवेत्य निश्चित्य लोकावलोकाय सनारिजनदर्शनाय / अन्यत्र, लोकानां जनानां व्यवहासय / चतुओं पथां समाहारः चतुष्पथं, 'तद्धितार्थ' इत्यादिना समा. हारे द्विगुः 'ऋक्पूरब्धः-' इत्यादिना समासान्तः / 'पथस्संख्याध्ययादेः' इति नपुंस. कस्वम् / तस्य आभरणं बभव / तत्र स्थित इत्यर्थः / क्लिष्टैकमार्गे स्त्रीसंवाधादक्लिष्टे चतुष्पथे स्थित्वा समन्तादवलोकितवानित्यर्थः। चतुष्पथस्थो दीपो लोकाव. लोकाय कल्पत इति ध्वनिः // 24 // सज्जनों के प्रकाशक ( पक्षान्तरमें-वर्तमान वस्तुओंको दिखलानेवाला) दीपरूप वह नल 'एक संकीर्ण मार्गको छोड़कर ही यहां ( अन्तःपुरमें ) घूमती हुई स्त्रीका स्पर्श सरलतासे छूट सकता है', ऐसा समझकर लोगोंको देखनेके लिए (पक्षा०-लोगाको यहां की सब वन्तुएं दिखलानेके लिए ) चौरास्तेके भूषण बने (चौरास्तेपर खड़े हो गये ) / [नलने सोचा कि स्त्रियां यहां पर इधर-उधर आती-जाती रहती हैं, अतः मैं संकीर्ण रास्तेको छोड़ कर यदि चोरास्तेपर खड़ा हो जाता हूं तो किसी स्त्रीका स्पर्श न होनेसे नुझे परस्त्रीस्पर्शजन्य दोष नहीं लगेगा अतः सज्जनोंके दीपकरूप से अन्तःपुरके लोगोंको देखनेके लिए चौरास्तेपर खड़े होकर उस प्रकार वहां की शोभा बढ़ाने लगे, जिस प्रकार चौरास्तेपर रक्खा हुआ दीपक आने-जानेवाले लोगोंके लिये वहांपर स्थित सब पदार्थोंको प्रकाशित करता हुआ उस चौरास्तेकी शोभा बढ़ाता है ] // 24 // उद्वर्तयन्त्या हृदये निपत्य नृपस्य दृष्टिन्यवृतदू द्रुतैव / वियागिरात कुचयोनखाङ्करैरर्धेन्दुलीलेंगलहस्तितेव // 25 // उद्वर्तयन्त्या इति / नृपस्य दृष्टिकद्वर्तयन्त्या गात्रमुन्माजयन्त्याः, हृदये वक्षसि, निपत्य अर्धेन्दुलीलरधचन्द्राभिख्या, कुचयोर्नखारैः कर्तृभिः, वियोगिषु वैरादिन्दु. रवप्रयुक्तविरोधात् / गले हस्तो गलहस्तः तद्वती कृता गलहस्तिता हस्तेन गले