________________ षष्ठः सर्गः। 307 गृहीत्वा नुन्नेवेत्युप्रेशार्थः। मवन्तात् करोतीति णिचि णाविष्वदावे विण्मतो. लक / ततः कर्मणि कः / 'अर्धेन्दुश्चन्द्रशकले गलहस्तनखाङ्कयोः' इति विश्वः / दुता त्वरितैव न्यवृतत् न्यवर्तिष्ट / पापभयादिति भावः // 25 // ( कुङ्कमादिसे ) लेप करती हुई किसी स्त्रीसे वक्षःस्थलपर पड़ी हुई नलकी दृष्टि दोनों स्तनोंपर अर्द्धचन्द्राकार नखचिह्नके द्वारा वियोगियों के साथ विरोध होनेसे मानों गलहस्तित ( गलेमें हाथ डालकर बाहर निकाली गयी अर्थात् 'गर्दनिया' दी हुई के समान ) झट लौट गयी / [ जैसे कोई व्यक्ति किसीके द्वारा गलेमें हाथ डालकर अपमानके साथ शीघ्र बाहर कर दिया जाता है, वैसे ही स्त्रियोंके दोनों स्तनोंपर अर्द्धचन्द्राकार नखछिहने वियोगी व्यक्तिके साथ वैर होनेसे नल इष्टिको भी शीघ्र बाहर कर दिया। चन्द्रमाका विरहियों के साथ वैर होना सुप्रसिद्ध है, अतः अर्द्धचन्द्राकार नखक्षतके द्वारा विरहिणी नलदृष्टिको सापमान बाहर करना उचित ही है। परस्त्रीके आवरणरहित स्तनोंसे पापभीरु नलने अपनी दृष्टिको शीघ्र हटा लिया ] // 25 // तन्वीमुखं द्रागांधगत्य चन्द्र वियोगिनस्तस्य निमीलिताभ्याम् / द्वयं द्रढीयः कृतमीक्षणाभ्यां तदिन्दुता च स्वसरोजता च / / 26 / / तन्वीति / तन्वीमखमेव चन्द्रं व्यस्तरूपकम् / द्रागधिगत्य हठात् दृष्ट्वा निमी. लिताभ्यामिति भावः / वियोगिनस्तस्येक्षणाभ्यां तस्य तन्वीमुखस्येन्दुता च स्वयोः सरोजता चेति द्वयं द्रढीयो दृढतरं कृतमित्युत्प्रेक्षा / अन्यथा कथं तत्सन्निधौ तयोनिमीलनमिति भावः।। 26 // चन्द्ररूप कृशाङ्गीके सुखको प्राप्त (देख) कर झट बन्द हुए नलके नेत्रोंने कृशाङ्गी मुखके चन्द्रत्व तथा अपने ( नेत्रद्वयको ) कमलत्व-इन दोनों बातोंको अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया। [चन्द्रतुल्य कृशाङ्गी-मुखको देखकर नलने अपने नेत्र झट बन्द कर लिये, इससे चन्द्रको देखकर कमल ही बन्द हो जाता है, तथा कमल चन्द्रको देखकर हो बन्द होता है इन दोनों बातोंको, अथवा-कृशाङ्गीका मुख चन्द्र ही है और नलके नेत्र कमल ही हैं-इन दोनों बातोंको उन्होंने दृढ़ कर दिया ] // 26 // चतुष्पथे तं विनिमीलिताक्षं चतुर्दिगेताः सुखमग्रहीष्यन् / संघट्य तस्मिन् भृशभीनिवृत्तास्ता एव तद्वर्त्म न चेददाम्यन् / / 27 / / नन्वङ्गसंघनानन्तरं तास्तं किमिति न गृह्यन्तीत्यत आह-चतुष्पथ इति / चतुप्पथे, विनिमीलिताशं तं नलम् / चतसृभ्यो दिग्भ्यः। एता आगताः। भाजपूर्वादिणः कर्तरि का, उत्तरपदसमासः। तास्सुखमक्लेशेन अग्रहीयन् गृह्णीयुः, तस्मिनले संघट्य अभिहस्य / आधारत्वविवक्षायां सप्तमी। भृशया गाढया भिय। निवृत्तास्ता एव तस्य नलस्य वर्म नादास्यन् न दधुश्चेत् / किंतु, स्वयमेव अस्य भूतशतया मार्ग दत्वा भयात् पलायितानां तासां, कुतस्तग्रहणधाष्टमित्यर्थः / क्रियातिपत्ती लुक // 27 //