________________ पञ्चमः सर्गः 265 मो अधिक सुन्दर, या अत्यन्त ऊँचे स्तरपर उढ़नेसे चन्द्रमवन ( चन्द्रनिवासस्थान-चन्द्रकोक ) के भी अभिमानको चूर करनेवाले) विमानोंको लांघ गये थे (उन विमानोंको अपेक्षा भो तीव्र वेगसे चलते थे, अथवा उनसे भी ऊँचा पहुँच गये थे)। चरणपर प्रणामकर विमा. नांके स्वामियों के प्रार्थना करनेपर भा ( 'पैदल क्यों जा रहे हैं ? आकर मेरे विमानपर चढ़कर चलिये' ऐसा निवेदन करने पर भी विलम्ब होने की बाशहासे ) उन (विमानस्थित देवतामों ) का आतिथ्य ग्रहग नहीं किया ( उनके विमानपर नहीं बैठे ) // 4 // तस्य तापनभिया तपनः स्वं तावदेव समकोचयदचिः / यावदेष दिवसेन शशीव द्रागतप्यत न तन्महसैव / / 5 // तस्येति / तपनोऽकी, तस्य मुनेः (कर्मणः), तापनादिया, सन्तापोऽस्य भविज्यतीति भयेन स्वमारमीयमचिस्तेजस्तावदेव प्रागेव, समकोचयत् सङ्काचितवान् / यावदेष तपना दिवलेन दिवा, आतपेन स्वौजसा, शशीव, तन्महसा तस्य तेजसेव, बाक सपदि, स्वयमेव नातप्यत, मुनितापनादामहानेरमारमशेच इति मवा मन्दप्रकाशः स्थित इत्यर्थः / तथा च सूर्यादपि तेजिष्ठा मुनिरिति भावः // 5 // सूर्यने नारदजीका सन्ताप होने के भयसे अपने तेजको ता तक ( अथवा-उतना, अथवा-पहले ) हो कम कर लिया, जब तक ( अपवा-जितनेसे ) दिन के द्वारा चन्द्रमाके समान उन ( नारद जा ) के तेजसे ही स्वयं तत नहीं होने लगे [ सूपंको दो प्रकार के भय थे-एक यह कि यदि मैं तापका कम नहीं करूंगा तो मुझको नारदजा से संताप होगा और वे मुझे क्रोधसे शाप दे देंगे, दूसरा यह कि यदि मैं अपने तेन का अधिक कम कर लूंगा तब उनके तेजसे मैं स्वयं ही सन्तप्त होने लगूंगा, जैसे मेरे ( सूर्य के ) ते बसे चन्द्रमा सन्तप्त ( कान्ति होन ) होता है / अतः सूर्यने तब तक या उतना ही अपना तेज कम किया, जिससे उनके तेजसे न तो नारद ना सन्तप्त हुए और नारदजाके ते बसे स्वयं वे ( सूर्य ) हो सन्तप्त ( क्षाणकान्ति ) हुए / नारदजोका तेज सूर्य के समान था ] // 5 // पर्यभूहिनमणिद्विजराजं यत्करैरहह तेन सदा तम् / पर्यभूत् खलु करैर्द्विजराजः कम कः स्वकृतमत्र न भुङ्क्ते ? // 6 // पर्यभूदिति / दिनमगिः सूर्यः, द्विजराजं चन्द्रं ब्राह्मगोत्तमच, करैरंसुभिः हस्तैश्च, क्यंभूत् परिभूतवानिति यत् / तेन परिभवेन ( हेतुना) तदा नारदागमन काले, तं दिनमणि, द्विजराजो ब्राह्मणोत्तमश्चन्द्रश्व, कौरंशुभिहस्तैश्च, पर्यत् / अहह अद्धः तम् / 'अहहेश्यद्भुते खेदे' इत्यमरः / स्वकृतद्विजराजपरिभव होलात् स्यमय तेन परिभूत इत्यर्थः / तथा हि, अत्र जावलोके का स्वकृतं (कर्म) न भुङ्क्ते / सर्वगापि. स्वकर्मफलमनुभाग्यमेवेत्यर्थान्तरन्यासः॥६॥ सूर्यने करों (किरगों, पक्षान्तरमें-हायों) से द्विजराज (चन्द्रमा, पशान्तरमें