________________ पञ्चमः सर्गः विदो यारमावलेशाभिज्ञस्य तव परं केवलं तवैव / नान्यस्येत्यर्थः / 'परं स्यादुत्तमाः माप्तरिदारेषु वेचले' इति मिशः / याचक एव याचकदुःखं जानातीति भावः। ननु धनिना दातृत्वं किं चित्रं तबाह-क्लेशेति / सायं क्लेशलब्धं तु अधिकादरदम अतिलोभकारि दुस्स्यजम् / स्वं तु मखशतक्लेशलब्धमप्यैश्वर्यमाथसास्करोषीति कर्थ न चित्रमित्यर्थः / अन्न क्लेशवाक्येन हेलास्वसमर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गमल कारः / 'हेतोर्वाक्यपदार्थरवे कायलिङ्गमुदाहृतम्' इति लसणात् // 21 // 'आपने सौ अश्वमेध यज्ञरूपी पुण्यकी जो मिक्षा प्राप्त की है उसके (पानेमें ) परिश्रम को जानने वाले उस पुण्य के फल अपने (इन्द्रपटरूप ) ऐश्वर्यमें, यदि अनादर ( श्लो०१६) है तो केवल आपको है (अन्य किसीको नहीं / अथवा-यदि अधिक अनादर है तो सापको है। ) कष्टसे प्राप्त हुई वस्तु तो अधिक आदरके योग्य होती है / [ भिक्षामें प्राप्त इतने बड़े ऐश्वर्यका वेवल माप ही अनादर कर सकते है, मिक्षाके कष्टको समझनेवाला दूसरा कोई व्यक्ति थोड़ी-सी सम्पत्ति पाकर भी उसका अनादर नहीं करता, फिर इतनी बड़ी-इन्द्रपद. रूप सम्पत्तिके अनादर करने की बात ही कौन कहे ? / भिक्षाप्राप्त इतनी बड़ी सम्पत्तिको मी भाप जो मतिथिके सत्कारमें लगाना चाहते हैं, यह बड़े भाश्चर्यकी बात है ] // 21 // सम्पदस्तव गिरामपि दूरा यन्न नाम विनयं विनयन्ते / श्रद्दधाति क इवेह न साक्षादाह चेदनुभवः परमाप्तः / / 22 // सम्पद इति / कि बहुना, तव सम्पदो गिरामपि दूराः अगोचराः, कुतः, यद्य. स्मादिनयं न विनयन्ते नाम न लुम्पन्ति खलु / नयतेलंट 'स्वरित-' इत्यादिना आत्मनेपदम्, 'कर्तृस्थे चाशरीरे कर्मणि' इत्यस्मादिति केचित् / तदसत् / सम्पदा कतणाम् अचेतनस्वेन कर्मणो विनयस्येन्द्रियनिष्ठरवेन चाकर्तृस्थत्वादिति / अतः स्तोतुमशक्या इत्यर्थः / किं रिवह विनयोत्तरत्वे परमाप्तः प्रमाणभूतः साक्षादनुभवः प्रत्यक्षानुभवसिद्धः, नाह चेक इव को वा, श्रद्दधाति विश्वसिति, न कशिदिस्यर्थः / स्वरसम्पदा दिनयोत्तरवे साक्षादनुभवता माशामेव श्रद्धा जायते नान्येषां, प्राये. णान्यत्र सम्पदा विनयहारित्वात् / किबहुना, वयमपि न श्रद्दध्म इति भावः / अत्र सम्पदा वाग्गोचरत्वेऽपि तदगोचरत्वोक्त्या असम्बन्धरूपातिशयोक्तिः // 22 // वचन के अविषय अर्थात् अवर्णनीय ('इतनी सम्पत्ति है। ऐसा नहीं बता सकने योग्य) सम्पत्तियां जो तुम्हारे विनयको नहीं दूर करती है, इसमें यदि अत्यन्त प्राप्त ( परम मित्र, अथवा-राग-द्वेषसे रहित कोई परम प्रामाणिक व्यक्ति, अथवा-कमी नहीं व्यभिचरित भर्थात् दूषित होनेबाला) अनुभव साक्षात् नहीं कहता है तो कौन श्रद्धा करता है अर्थात कोई नहीं / [अथवा-इस विषय में यदि परम आप्त साक्षात् अनुभव कहता है तो कौन विश्वास 1. 'मति-' इति पाठान्तरम् /