________________ पञ्चमः सर्गः 285 पर्वत मुनिने ( पक्षान्तरमें-पहाड़ने ) नारदमी (पक्षान्तरमें-जलद अर्थात् मेघ ) का गम्भीर ( अर्थगम्भीर, पक्षान्तरमें-उच्च ) कथन (पक्षान्तरमें-गरजना) सुनकर प्रति. नन्दन ( नारदजीका कथन ठीक है, ऐसा स्वीकार; पक्षान्तरमें-प्रतिध्वनि ) किया। पर्वतों के सिद्धान्तका खण्डन करनेवाले ( पक्षान्तरमें--पहाड़ोंका पंख काटनेवाले; इन्द्र) ने अपना कोई भी पक्ष (सिद्धान्त, पक्षान्तरमें-पंख नहीं दिखलाया। [ पर्वत मुनि नारदजी के साथ स्व में गये थे, अतः मित्रकी बातका समर्थन किया, पक्षान्तरमें मेषकी गरजना सुनकर पहाड़ने ( गुफासे ) प्रतिध्वनि की / अपने सिद्धान्तका इन्द्र के द्वारा खण्डन किये जाने की आशङ्कासे पर्वत मुनि ने स्वयं अपना कोई मत वहां नहीं दिया / बुद्धिमान् कोई भी व्यक्ति अपने मतको खण्डित होनेवाला मानकर चुप ही रह जाता है, वहां अपने मतका प्रतिपादन नहीं करता / पक्षान्तरमें-इन्द्र जब पर्वतोंका पंख काटते है सब पर्वतको अपना पंख इन्द्र के द्वारा काटने के भय से नहीं दिखाना स्वाभाविक ही है ] // 44 // पाणये बलरिपोरथ भैमीशीतकोमलकरग्रहणाहम् / भेषजं 'चिरचितानिवासव्यापदामुपदिदेश रतीशः // 45 // इन्द्रस्तु भैग्यामनुरकोऽभूदित्याह-पाणय इति / अथ नारवनिर्गमनान्तरं, रतीशः कामो बलरिपोरिन्द्रस्य पाणये चिरचितानां चिरसचितानाम, अशनिवासेन वज्राग्निसम्पर्केण याः व्यापदो विदाहाः तासां भैमीशीतकोमलकरस्य प्रहं ग्रहण मेवाह योग्यं, भेषजमौषधमुपदिदेश। वीराभिभवेन शृङ्गारः प्रवृद इति भावः / अत्र कामनिबन्धस्य भमीपाणिग्रहणस्यानिवासतापशमनार्थवोत्प्रेक्षा ग्याकप्र. योगाद् गम्या // 45 // इस ( नारदजी के जाने ) के बाद कामदेवने इन्द्र के हाथके लिये चिरकालतक वज्रके सञ्चित (पाठा० ग्रहण किये रहने से उत्पन्न ) महान् रोगके योग्य, दमयन्तीके ठंढे तथा कोमल हाथ का ग्रहण अर्थात् विवाह करना औषध बतलाया। [इन्द्र के हाथमें सर्वदा दाहक एवं कठोरवज्र रखने से दाह तथा कर्कशतारूप महान् रोग हो गया, उसको दूर करने के लिये कामदेवरूपी वैद्यने भैमीके शीतल तथा कोमल हाथको ग्रहण करना योग्य मौषध बतलाया अर्थात् इन्द्र दमयन्तीको पाने के लिए कामपीडित हो गये। अन्य भी व्यक्ति कर्कः शता तथा दाहकता शान्त करने के लिए ठंढा तथा कोमक पदार्थका उपयोग करते हैं] // 45 // नाकलोकभिषजो सुषमा या पुष्पचापमपि चुम्बति सैव / वेद्मि ताहगाभषज्यदसौ तद्वारसंक्रमितवैद्यकविद्यः / / 46 / / ननु कामस्य कुतो वैधावियेत्यत आह-नाकेति / नाकलोकभिषजोर श्विनोर्या सुषमा सौन्दर्य सैष पुष्पचापं काममपि चुम्बति स्पृशति, तस्मादपि / तावेव सुष 9. 'चिरता-' इति पाठान्तरम् /