________________ पञ्चमः सर्गः 267 वेत्य मनसेस्याधुपसंहारश्लोके परस्परमुखदर्शनोक्त्या त्रयाणामेकाभिप्रायावगमाष अस्मदुक्कमेव युक्तमुत्पश्यामः // 6 // संसारके प्राणरूप ( सौन्दर्यादिसे प्राणवर प्रिय, अथवा-पाछनादिके द्वारा प्राणदानकर्ता, अथवा-श्वासवायुरूप ) नलको पाकर प्रसन्न, चञ्चल और अधिक सन्तापयुक्त धर्मराज ( यम ), वरुण तथा अग्निने चित्तमें गुप्त मावसे यह विचार किया-[अथवा-नलको जगतका उक्तरूप होनेसे यमादिको ऐसे सुन्दर व्यक्तिके देखनेसे हर्ष, 'हम स्वयंवर में अब सम्मिलित हों या नहीं यह विचार भानेसे चञ्चलता, और दमयन्ती इस नलको छोड़कर हमलोगों को नहीं वरण करेगी' इस विचारसे अधिक सन्ताप हुमा / अथवा-नलके संसारका प्राणरूप तथा धर्मराजका लोकप्राणका अपहरणकर्ता होनेसे हर्षित होना, जलरूप वरुणका प्राण अर्थात् जगत्प्राण नलरूप वायुको प्राप्तकर मेघ के समान बनल होना, और मग्निका जगत्प्राण नलरूप वायुको प्राप्त करनेसे सन्ताप बढ़ना (अधिक प्रज्वलित होना) युक्तियुक्त ही है अर्थात् नलको स्वयंवर में जाते देख यमको क्रोध, वरुणको पबढ़ाहट तथा अग्नि को अधिक सन्ताप हुआ और वे मनमें इस प्रकार सोचने लगे यहाँ क्रमशः यमका हर्षित, वरुणका चम्चल और अग्निका सन्तप्त होना नारायणसम्मत यह अर्थ मस्लिनाथको अमीष्ट नहीं है; परन्तु अपने मतके पुष्टयर्थ जो हेतु प्रदर्शित किये हैं, वे कहाँ तक युक्ति. युक्त हैं, यह विचारक विद्वान् ही विचार करें] // 68 // नैव नः प्रियतमोभयथासौ यद्यमुं न वृणुते वृणुते वा / एकतो हि धिगममगुणज्ञामन्यतः कथमदःप्रतिलम्भः // 6 // चिन्ताप्रकारमेवाह-नैवेत्यादिना श्लोकत्रयेण / असौ दमयन्ती, अमुं नलं यदि न वृणुते वृणुते वा / उभयथापि पक्षद्वयेऽपि नोऽस्माकं प्रियतमा न भवस्येव / कुतः हि यस्मादेकतः प्रथमपचे अगुणज्ञाम धिक् / तस्सनतेरसुखावहत्वादिति भावः / अन्यतो नलवरणपक्षे कथमदःप्रतिलम्मः अमुष्याः परिग्रहः। परदारवादिति भावः॥ - 'यदि यह दमयन्ती इस नलको नहीं वरण करती है, अथवा वरण करती है। दोनों प्रकारसे वह प्रियतमा नहीं होगी, क्योंकि प्रथम पक्षमें अर्थात् नलको नहीं वरण करती है तो गुगको नहीं पहचाननेवाली इस दमयन्तीको धिक्कार है (ऐसा गुणकी अनभिशा दमयन्तीको मैं वरणकर कोई आनन्द नहीं कर सकूँगा) तथा दूसरे पक्ष में अर्थात् यदि दमयन्ती नलको वरण करती है तब इस दमयन्तीकी प्राप्ति मुझे किस प्रकार होगी ? // 69 // मामुपैष्यति तदा यदि मत्तो वेद नेयमियदस्य महत्त्वम् / ईटशी न कथमाकलयित्री मद्विशेषमपरान्नृपपुत्री / / 70 / / मामिति / इयं दमयन्ती, इयदेतावदस्य नलस्य, मत्तो मस्सकाशान्महरवमा. धिक्यं, न वेद यदि, तदा मामुपैष्यति / तर्हि स्वदूतदेवस्वाास्कर्षज्ञानास्वामेव वरि.