________________ 314 नैषधमहाकाव्यम् / सेयमुषतरता दुरितानामन्यजन्मनि मयैव कृतानाम् / युष्मदीवमपि या महिमानं जेतुमिच्छति कथापथपारम् / / 104 // सेपमिति / सेयमन्यजन्मनि जन्मान्तरे, मवैव कृताना दुरितानामुच्चतरता महत्ता / तया किमपराद्धं, तदाह-या पापमहत्ता कथापथश्य वाग्वृत्तेः, पारं दूरमवाध्यमित्यर्थः / युष्मदीयमपि महिमानं प्रभावमाज्ञारूपं नेतुमुपवितुमिच्छति / पापातिरेकाधुष्मदाहोल्लङ्घनेच्छा मे जायते इति विनयोक्तिः / सर्वथा युष्मनियोगो न क्रिषत इति परमायः // 104 // दूसरे जन्ममें मेरे दी ( पूर्वजोंके नहीं ) द्वारा किये गये पापोंकी यह अधिकता है, जो ( मेरे जन्मान्तरोय पापोंकी अधिकता ) अत्यधिक एवं सर्वपूजित होनेसे (पक्षान्तरमेंअतिनिन्दनीय होनेसे) कहने में भी अशक्य भापलोगोंको महिमा ( पक्षान्तरमें-उत्साहपूर्ण दमयन्तीकी प्राप्ति करने के अभिमान ) को जीतना चाहती हैं। [भाप जैसे श्रेष्ठ दिक्पालों एवं देवेन्द्रकी भाशाके पालनका सुअवसर यबपि बड़े भाग्यसे मनुष्य को प्राप्त होता है, किन्तु मैं पूर्वधन्मकृत अपने ही पापाधिक्य के कारण उसका पालन नहीं कर सकता हूँ। पचान्तरमें-यह मेरा पूर्वजन्मकृत पापाधिक्य है कि आप से श्रेष्ठ दिक्पाल तथा देवराज इन्द्रतक भी ऐसे कपटपूर्ण बातोंको कह रहे हैं, अतः उन्हें समझ जाने के कारण मैं उनका पालन नहीं करूंगा, एवं दमयन्तीको पानेका जो उत्साहपूर्ण अभिमान आपलोगोंको है, उसे मैं नष्ट करूँगा। पहले (इलो० 95) नलने देवोंको याचनारूप सत्फल प्रान करने में सपने पूर्वजोंके तपको कारण बतलाया, और यहाँ उसके सर्वा विपरीत देवोंको बात न मानना रूप अप्सरकार्यमें भपने ही पूर्वजन्मकृत पार्पोको कारण बतलाया, इससे नलका श्रेष्ठ विवेक सूचित होता है ] // 104 // वित्त वित्तमखिलस्य न कुर्या धुर्यकार्यपरिपन्थि तु मौनम् / हीगिरास्तु वरमस्तु पुनर्मा स्वीकृतैव परवागपरास्ता // 105 // मदु कुटिकोक्तेवरं मौनमत आह-वित्तेति / हे देवाः, अमिलस्य जनस्य, चित्तं मित्त विदित्वा प्रत्यर्थः / तर्हि, कीहक चित्तं तदाह-भुति / धुर्यस्य इएसाधनस. मर्चस्व, कार्यस्योपायप्रयोगस्य, परिपन्यि विरोधि, मौनं तु कुर्माम् / किंतु गिरा परिहारोक्त्या हीरस्तु / वरम्, कार्यविरोधिनो मौमाजावहमपि परिहारबचनमेव साहित्यर्थः / तर्हि मौनादेव परिहारे किं प्रतिषेवरोरपेण तबाह-परेति / परस्य वाक प्रार्थनोकिरपरास्ता अप्रतिषिद्धा सती, स्वीकृतव पुनः। अप्रतिषिद्धमनुमत. मिति न्यायाधीकृतैव तु मास्तु // 105 // (बपि भापलोग) सबके मन ( मनोगत भाव ) को मानते हैं, ( तथापि मैं ) अभिलपित वामेष्ठ कार्य (दमयन्तीको प्राप्तिरूप ) का वावक मौन-भारण नहीं करूंगा।