________________ षष्ठः सर्गः दूत्याय दैत्यारिपतेः प्रवृत्तो द्विषां निषेचा निषधप्रधानः / स भीमभूमीपतिराजधानी लक्षीचकाराय रथस्यदस्य // 1 // दूत्यायेति / अथ दूत्याङ्गीकारानन्तर, द्विषां निषेद्धा निवारयिता, निषधानां जनपदानां, प्रधानः, मुख्याधिपतिरित्यर्थः। स नलः देत्यारिपतेः देवेन्द्रस्य, दूत. कर्मणे / 'दूतस्य भावकर्मणी' इति यत्प्रत्ययः / प्रवृत्त उद्यक्तः सन् , स रथस्यदस्य रथवेगस्य भीमभूमीपतिराजधानी कुण्डिननगरों, लक्षीचकार लक्ष्यमकरोत् / गमनं चकारेत्यर्थः॥१॥ अनन्तर शत्रुओंको निवारण करने में समर्थ और देवराज इन्द्रके दूत-कर्म करनेके लिये प्रवृत्त उस निषधराज नलने भीम राजाकी राजधानी ( कुण्डिनपुरी) को रथवेगका लक्ष्य बनाया अर्थात् कुण्डिनपुरीकी ओर रथको बढ़ाया // 1 // भैम्या समं नाजगद्वियागं स दूतधर्मे स्थिरधीरधीशः / पयोधिपाने मुनरन्तरायं दुर्वारमप्यौमिवीर्वशेयः / / 2 // भैम्येति / अधीशो मनोनियमनसमर्थः / अत एव, दूतधर्म दूतकृत्ये, स्थिरधीरचलबुद्धिः, स नलः, भैम्या समं सह / 'साकं सत्रा समं सह' इत्यमरः। वियोगम, और्वशेयः उर्वशीपुत्रो मुनिरगस्त्यः और्वशेयः कुम्भयोनिरगस्त्यो विन्ध्यकुटुनः' इति हलायुधः। पयोधिपाने दुर्वारम्, उर्ध्या अपत्यमौवों वरुणभयान्मातृगुप्त इति स्वामी / तमौर्व वडवानलमिव अन्तरायं नाजगणदन्तरायत्वेन नामन्यत / भैमी. वियोगमपि विषह्य प्रतिज्ञाभङ्गभयात् दूत्यमेव दृढतरमवलम्बितवानित्यर्थः / अन्त. रायविशेषणमुभयत्रापि योजनीयम् // 2 // स्थिरबुद्धि या वशी वह राजा नल, उर्वशी-पुत्र ( अगस्त्य मुनि) समुद्रपान करने में दुर्वार वडयाग्निको जिस प्रकार नहीं गिने ( उसकी चिन्ता नहीं किये), उसी प्रकार दूतधर्ममें (होनेवाले विकारादि सात्विक भावरूप ) दुर्वार दमयन्तीके विरहको नहीं गिने / [इन्द्रादिके दूतकर्म करनेपर मेरा दमयन्ती से सदा के लिये विरह हो जायेगा एवं उसे देखने पर होनेवाले सात्त्विक विकार आदि भावों को रोकना कष्टसाध्य होगा, इसकी नलने कोई चिन्ता नहीं की / अथ च-उर्वशी ( 'उरु अइनाति' इस विग्रहसे वहुत खानेवाली ) के पुत्र अगस्त्य मुनि को भी दुर्वार वडवाग्निकी बिना चिन्ता किये विशाल समुद्रको खाना अर्थात् पीना उचित ही है ] // 2 // नलप्रणालीमिलदम्बुजाक्षोसंवादपीयुपिपासवस्ते / तदध्ववीक्षार्थमिवानिमेषा देशस्य तस्याभरणीबभूवुः / / 3 / / नलेति / ते इन्द्रादयो देवाः, नल एव प्रणाली जलनिर्गममार्गः, तया मिलत् 16 नै०