________________ 216 नैषधमहाकाव्यम् / प्रवहत्, अम्बुजाक्षीसंवादपीयूषं दमयन्तीसंवादामृतं, पिपासवः पातुमिच्छवःसन्तः। मधुपिपासुवत द्वितीयासमासः। तदध्ववीक्षार्थ नलमार्गप्रतीक्षार्थमिव अनिमेषाः सन्तः इत्युप्रेशा। तस्य देशस्य नलनिर्गमनप्रदेशस्याभरणीवभूवुः। तदागमन. पर्यन्तं तत्रैव तस्थुरित्यर्थः // 3 // __ नलरूप नालेसे आनेवाले कमलनयनी दमयन्तीका संवाद (रहस्यकथा ) रूप अमृतको पीनेके इच्छुक तथा मानों नलके ( आनेकी प्रतीक्षामें उनके मार्गकी एकटक ) देखने के लिये निमेषरहित वे इन्द्रादि देव उस स्थानके आभरण बन गये। [ दमयन्तीके यहांसे नल क्या संवाद लाते हैं ? यह सुननेके इच्छुक वे इन्छादि चारो देव उनके आगमन-मार्ग को रूप मुख किये एकटक देखते हुए वहीं ठहर गये ] // 3 // तां कुण्डिनाख्यापदमात्रगुणामिन्द्रस्य भूमेरमरावतीं सः। मनोरथः सिद्धमिव क्षणेन रथस्तदीयः पुरमाससाद // 4 // तामिति / तस्यायं तदीयः, नलीयः, स रथः, तां कुण्डिनमिति यदास्यापदं नामपदं, तन्मात्रेण गुप्तां छत्राम, अमरावतीमिन्द्रराजधानीम्, तत्कल्पामित्यर्थः / भूमेरिन्द्रस्य भीमभूपतेः, पुरं, मनोरथः सिद्धिमिव क्षणेन आससाद प्राप // 4 // उस नलका रप, जिस प्रकार मनोरथ ( मनरूपी रथ, अथवा-अभिलाष ) सिद्धिको प्राप्त करता है, उस प्रकार ( पृथ्वीके इन्द्र भीम ) की 'कुण्डिनपुर' नामसे गुप्त (या सुरक्षित ) अमरावतीको क्षणमात्र में प्राप्त किया। [ अथवा-वस्तुतः में राजा मीमकी वह राजधानी कुण्डिनपुरी नहीं थी, किन्तु अमरावती अर्थात् इन्द्रकी राजधानी थी और नाममात्रसे गुप्त होनेसे भिन्न प्रतीत होती थी। इससे रथका वेगातिशय तथा दूत-कर्ममें उनकी अधिक तत्परता और कुण्डिनपुरीकी शोभा-सम्पत्तिकी अधिकता व्यक्त होती है ] // 4 // भैमीपदस्पर्शकतार्थरच्या सेयं पुरीत्युत्कालकाकुलस्ताम् / नृपो निपीय क्षणमीक्षणाभ्यां भृशं निशश्वास सुरैः क्षताशः / / 5 !! मैमीति // नृपो नका, इयं भैमीपदस्पर्शेन कृतार्थरण्या सफलमार्गा, सा श्रूयमाणा पुरी कुण्डिनपुरीत्युत्कलिकया उत्कण्ठया, आकुल: पुभितः सन् / क्षणमीतणाभ्यां, तां पुरी, निपीय सतृष्णं दृष्ट्वा, सुरैः शताशः भिनाशः सन् भृशं निशश्वास // 'दमयन्तीके चरणों के स्पर्शसे कृतार्थ मार्गौवाली वही यह नगरी है' इस उत्कण्ठासे व्याकुल (क्षुब्ध अथवा व्याप्त ) राजा नल उस नगरी को क्षणमात्र अर्थात् थोड़ी देर देखकर लम्बा श्वास लेने लगे, क्योंकि देवोंने उनकी आशा नष्ट कर दी थी। अथवा- देखकर निश्वास लेने लगे, क्योंकि देवोंने उनको आशा अत्यन्त ( बिलकुल ही) नष्ट कर दी थी। [पहले तो दमयन्तीके सम्बन्धसे युक्त पुरीका स्मरणकर नलको उत्कण्ठा हुई, किन्तु अपने दूत-कर्म का स्मरणकर दमयन्तीके साथ वहां विचरण आदि करनेकी आशा नष्ट हो जानेसे उन्होंने दीर्घ श्वास लिया ] // 5 //