________________ 332 - नैषधमहाकाव्यम् / सत्पन्न किया, वह छाया-पुत्र ( शनैश्वर ) पैरसे लंगड़ा कैसे हुआ ?, क्योंकि पुत्र पिताके सदृश होता है / हमलोगोंको इस (सन्देह) का उत्तर भाज मिला कि तुम्हारे तेजोको सहन परों ( पक्षान्तरमें-किरणों ) से भी लापनेमें सूर्य पङ्गु ( लंगड़ा अर्थात् असमर्थ ) हो गया है। [ तुम्हारे तेजों को सहस्र पैरों ( पक्षा-किरणों ) से लांघने के लिये प्रतिज्ञा करके भी सूर्य अपनी प्रतिज्ञाको पूरी नहीं कर सकता, परन्तु आपने अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण किया, अतः सूर्यके तेजसे भी भापका तेव मधिक है ]' // 13 // इत्याकर्ण्य क्षितीशस्त्रिदशपरिषदस्ता गिरश्चाटुगर्भा वैदर्भीकामुकोऽपि प्रसभविनिहितं दूत्यभारं बभार | अङ्गीकारं गतेऽस्मिन्नमरपरिवृढः संभृतानन्दमूचे भूयादन्तर्धिसिद्धेरनुविहितभवच्चित्तता यत्र तत्र // 137 / / इतीति / चितीशो नलः, त्रिदशपरिषदः सरसाघस्य इत्येवंरूपाश्चाटुगर्भाः प्रिय. प्रायास्ता गिर आकर्ण्य वैदीकामुकः समपि 'लषपत-' इत्यादिना कमेरुका प्रत्ययः / अत एव 'न लोक-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् मधुपिपासुवद् द्वितीया समासः / प्रसमविनिहितं बलादारोपितं दृत्यमेव भारं बभार / अस्मिनले, भली. कारं गते सत्यमरपरिवृढो देवेन्द्रः / हे नरेन्द्र ! यत्र कुनापि, अन्तर्षिसिद्धेः अन्त. निशक्तेरमुविहितभवग्चित्तता अनुसतस्वन्मनस्कता, भूयात् भवचित्तानुसारेण सर्वत्र तवान्तर्भावशक्तिरस्तु इति सम्भृतामन्दं सहर्षमूचे। तिरस्करिणीविद्या प्रादा. दित्यर्थः // 137 // ___ भूमिपति नल दमयन्तीका कामुक होते हुए भी इस प्रकार (३लो. 117-136 ) चाटु (प्रिय भाषण अर्थात खुशामदी ) से युक्त, देव-समूहके उन वचनोंको सुनकर बलात रखे हुए दूत-कर्मरूप मारको ग्रहण किया ( देवों के दूत्यकमको दुःखसे स्वीकृत किया)। इसे नलके स्वीकार करनेपर देवराज इन्द्रने अत्यन्त मानन्दपूर्वक कहा कि-'अन्तर्धान होनेकी सिद्धि जहां-तहां तुम्हारी इच्छाके अनुसार होवे अर्थात् तुम जहां अन्तर्धान होना चाहो वहां अन्तर्धान हो जावो और जहां प्रत्यक्ष होना चाहो वहां प्रत्यक्ष हो मायो॥ 17 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रोहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचनातातस्य भव्ये महा काव्ये चारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्पञ्चमः / / 138 /