________________ पञ्चमः सर्गः दारा पवित्र करती हुई निर्मलता ( पक्षान्तरमें-हो-हीन अद्वैत ब्रह्म) के विस्तार ( पक्षान्तरके-उपदेश ) से द्रव्यों ( सांसारिक पदार्थों) के मेचक (कपोतकण्ठवत् वर्णविशेष ), पीला, लाक तथा हरा इनके सम्बन्ध या नामको नष्ट करो। [हमलोगों के मनोरयके प्रति कहे हुए मधुर स्वरसे आह्लादित करनेवाले धर्मार्थ अपने प्रत्युत्तरको वेदतुल्य सार्थक कीजिये तथा इससे संसारको पवित्र करनेवाली फैलती हुई एकमात्र निर्मल कीर्तिसे समस्त वस्तुओंके कर्बुर, पीला, लाल और हरा-इन रंगोंको ना कीजिये अर्थात् अपनी कोर्तिसे संसारकी सभी वस्तुओं को श्वेत वर्णकी बनाइये / जो आपकी प्रतिश्रुति है, उसे अति ( वेद-वाक्य ) को प्रतिमट करना उचित ही है / वेदवाक्य भी यज्ञके उद्देश्यसे कहे जाते हैं, उस यज्ञके द्वारा बे देवोंको बाह्लादित करनेवाले होते हैं, अथवा-उदात्तादि स्वरोंसे देवतामों तथा श्रोताओं को आह्लादित करनेवाले होते हैं। वह श्रुति (वेट) सत्त्वादि गुणों से उत्पन्न एवं वनके समान अतिगहन संसारको पवित्र करती है तथा सर्वदोषवनित भदैत ब्रह्मका 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' इत्यादि वेदान्त काक्यों का प्रतिपादन करती हुई 'अजामेको लोहितशुक्लकृष्णा......, इत्यादि प्रत्युक्त मायाका नाश करती है। तुमने पहले हमलोगोंसे याचना पूरी करनेका जो वचन कहा है, उसे वेदवाक्यके समान सत्यकर अपनी शुभ्र कीर्तिको संसारमें फैलामो] // 135 // यं प्रासूत सहस्रपादुदभवत्पादेन खञ्जः कथं स च्छायातनयः सुतः किल पितुः सादृश्यमन्विष्यति / एतस्योत्तरमद्य नः समजनि त्वत्तेजसा लङ्घने ___ साहस्रैरपि पंगुरंघ्रिभिरभिव्यक्तीभवन्भानुमान् // 16 // यमिति / यं शनैश्चरं, सहस्रं पादाः रश्मयोऽङ्घ्रयश्च यस्य सः, सहस्रपात् सूर्यः। 'पादा रश्म्यघ्रितुर्यांशाः' इत्यमरः / 'सख्यासुपूर्वस्य' इति समासान्तलोपः / प्रासूत प्रसूतवान् , सः छायात नयः शनैश्चरः। 'मन्दश्छायासुतः शनिः' इत्यमरः शेषः / कथं पादेन खो विकलः सन् / 'येनानविकार' इति तृतीया। उदभवदु. स्पसः 1 सुतः पितुः साहश्यमन्विष्यति किल प्राप्नोति खलु / एतस्य प्रश्नस्याच स्वत्तेजसा लङ्घने साहस्रैः सहसूसङ्ख्यैरपि / 'अण च' इति मत्वर्थीयोऽण्प्रत्ययः / अघ्रिभिः पङ्गः खञ्जः, पूर्ववत्ततीया / अभिव्यक्तीभवन् मानुमान् सूर्यः नोऽस्माक. मुत्तरं समजनि सनातः। जनेः कतरि लुङ् / 'दीपजन-' इत्यादिना जनेविण / चिणो लुक / अनास्थापनोः पङ्गुत्वोक्तेरतिशयोकिभेदः। तद्धेतुस्वन शनैश्वरपङ्गु. स्वस्येत्युस्प्रेचा इति तयोः सः // 136 // जिसको सहस्रपाद ( सहस्र पैरोंवाला, पक्षान्तरमें-सहस्र किरणोंवाला सूर्य ) ने