________________ 326 पञ्चमः सर्गः कीर्तिसम्पयस्य सः, तथा सन् , केवलेन कुसुमेन गगनं पाण्डु शुभं, विधताम् / न तु वितरणेन यशसा / स्वार्थिनामन्यार्थित्वेन तषिदानदानकथास्तमियादिति भावः // 133 // हमलोगोंके तुम्हारे यहाँ याचक होनेपर, मलिन हो गयी है दानजन्य विशालकीर्ति शोभा जिसकी, ऐसा कल्पवृक्ष भाकाशको केवल पुष्पोंसे ही इबेत करे / [ पहले सब लोगोंकी याचना पूरी करनेसे कल्पवृक्ष के यश तथा पुष्प दोनोंसे ही भाकाशमण्डल श्वेत होता था. किन्तु अब दिक्पाल हमलोगोंके तुम्हारे यहां याचक हो जानेपर कल्पवृक्षकी दानशन्य कीर्ति आजसे नहीं रह जायेगी, अतः वह केवल अपने पुष्पोंसे ही भाकाशमण्डलको श्वेत करेगी / हमारी याचना पूरी करके आजसे तुम कल्पवृक्षसे भी बड़ा दानी बन जावोगे] // 133 // प्रवसते भरताजनवैन्यवत् स्मृतिधृतोऽपि नल ! त्वमभीष्टदः / स्वगमनाफलतां यदि शङ्कसे __ तदफलं निखिलं खलु मङ्गलम् / / 134 / / अन यात्रावैफल्यशया ते सङ्कोचस्तावइनाशनीय एवेत्याह-प्रवसत इति / हे नल ! प्रवसते प्रयाणं कुर्वते, भरतः शाकुन्तलेया, अर्जुनो हैहया, वैन्यः पृथुः, तैस्तुल्यं तद्वत् / 'तन तुल्यं क्रिया चेहतिः' / स्मृत्या धृतः स्मृतिस्तः, स्मर्यमाणो. ऽप्यभीष्टदः इष्टार्थप्रदत्वं स्वगमनस्य स्वयात्रायाः अफलतां वैफल्य शङ्कसे यदि, तत्तहि, लोके निखिलं सर्वमपि मजलं यात्राकालिक स्वस्मरणलक्षणं मङ्गलाचरणमा फलं खलु / यथा च-वेन्यं पृथु हैहयमर्जुन शाकुन्तलेयं भरतं नलं च / एतान्न: पान्यः स्मरति प्रयाणे तस्यार्थसिद्धिः पुनरागमश्च // ' इति शास्त्रमप्रमाणं स्यादि. स्यर्थः / तथा च मस्मरणादन्येषामर्थसिद्धिस्तस्य तथाऽर्थसिद्धौ का सन्देह इति भावः // 134 // हे नल ! भरत (दुष्यन्तपुत्र ), (सहस्रार्जुन) और वैन्य ( राजा पृथु ) के समान स्मरण करनेपर यात्रा करते हुए व्यक्तिके अभीष्टको देनेवाले तुम यदि अपने जानेकी निष्फलताका सन्देह करते हो, तब तो वह सम्पूर्ण मङ्गक निश्चित ही निम्फल हो जायेगा। [ यात्रा करते समय भरत आदिके समान तुम्हारे नाम का स्मरणमात्र करनेसे यात्रा करनेवाले व्यक्तिका मनोरथ पूर्ण हो जाता है, अतः साक्षात् मङ्गलस्वरूप तुम्हारी ही यात्रा यदि निष्फल हो जायेगी तब तो अन्य लोगों के लिये उक्त मङ्गलकारक बचन भी निष्फल हो जायेगा, अतः तुम्हें हमलोगों के दूत-कर्म करने में निष्फल होनेकी शङ्का कदापि नहीं करनी चाहिये ] // 134 //