________________ 328 नैषधमहाकाव्यम् / पक्षा-चन्द्रमुखी स्त्रीको भी जीतनेवाली है तथा दूरतम स्थानमें जाकर भी पतिका सहवास नहीं छोड़ती, अतः परमसाध्वी है / इसके विपरीत चन्द्रमुखी मृगनयनी स्त्री थोड़ी दूर जानेपर साथ छोड़ देती है। अथवा-कीति-भिन्न स्त्रीकी दृष्टि अन्यबनमोहिनी होनेसे निन्दनीय है, अतः यह स्त्री वैसी साध्वी नहीं है, इस कारण परमसाध्वी स्त्रीको सामान्य एवं अनिस्य सङ्गवाली सपत्नीके लिये कोई नहीं छोड़ता। साथ हो-त्रिकालदशी यम मविष्यमें कलिके प्रमावसे दमयन्तीका साथ छूटनेकी ओर भी संकेतकर कह रहे हैं कि वियुक्त होनेवाली दमयन्ती के लिये स्थायी रूपसे मिलनेवाली कीर्तिका त्याग मत करो] // 221 // यान 'वरं प्रति परेऽर्थयितार स्तेपि यं वयमहो स पुनस्त्वाम् | नैव नः खलु मनोरथमात्रं .. शूर ! पूरय दिशोऽपि यशोभिः // 132 / / यानिति / परे अन्ये जनाः, वरं प्रति इष्टलाभमुहिश्य, यानस्मामर्थयितारः / ताच्छील्ये तृन् / 'न लोक'-इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधाद् द्वितीया। ते वयमपि यं स्वामययितारः स्मः / अहो, स एवं पुनर्नोऽस्माकं, मनोरथमानं मनोरथमेव नैव पूरय / किंतु, हे शूर! यशोभिर्दिशोऽपि पूरय खलु / तस्मादस्मन्मनोरथपूरणेन ते दिगन्त विश्रान्ता कीर्तिर्भविष्यति / अन्यथा, अपकीतिरपि ताशी भविष्यतीति भावः // 132 // दूसरे लोग मी बिन (हमलोगों ) से अमीष्ट वरकी याचना करते हैं ( पाठभेदसेदूसरे लोग बिनसे केवल याचना करते है अर्थात देते कुछ भी नहीं), वे हमलोग तुमसे याचना करते हैं, यह आश्चर्य हैं। फिर वह तुम हे (दान-) शूर ! केवल हमलोगों के मनोरथको ही पूर्ण मत करो, किन्तु ( सबलोगोंको वर देनवाले इन्द्रादि दिक्पाल भी नलके यहाँ याचक बने, ऐसे ) यशसे दिशाओं को भी पूर्ण कर दो। [ हमलोगोंकी याचना पूर्ण करनेसे तुम्हारा यश सब दिशाओं में फैल बायेगा, अतः तुम्हें ऐसा अवसर नहीं चूकना चाहिए] // 132 // अर्थितां त्वयि गतेषु सुरेषु म्लानदानजनिजोरुयशःश्रीः / अद्य पाण्डु गगनं सुरशाखी केवलेन कुसुमेन विधत्ताम् // 133 // आर्थितामिति / अद्य सुरशाखी कल्पवृषः सुरेचस्मासु स्वयि विषये, अथितां गतेषु सत्सु म्लाना अर्यभावतीणा, दामजा दानजन्या, निजा उरुमहती यशःश्रीः 1. 'परम्' इति पाठान्तरम् /