________________ 324 नैषधमहाकाव्यम् / किमपि यत्तमो मोहोऽन्धकारश्च स्वामभिबुभूषति भभिभवितुमिच्छति / तचन्द्रवंशे वसतिः स्थितिर्यस्य तस्य ते सहशं किम् / न हि चान्द्रस्य तेजसस्तमसाभिभवो युक्त इत्यर्थः // 124 // इसके बाद ( दमयन्तीकी प्राप्तिमें बाधा मा मानेसे ) परहित उस नकसे यम बोले'हे वीरसेन वंशके दीपक नल ! तुमको मो कुछ (थोड़ा सा मतकणीय ) तम ( अज्ञान, पक्षान्तरमें-अन्धकार ) पराजित करना चाहता है, वह चन्द्रवंशमें रहनेवाले अर्थात् चन्द्रवंशोत्पन्न तुम्हारे लिए योग्य है क्या 1 अर्थात कदापि नहीं। [चन्द्रवंशी राजा कोग प्राण देकर भी याचकोंकी भाशा पूरी करते थे, मतः तुम्हें मी हमलोगों को निराश नहीं करना चाहिए / तथा-दीपकके पास एवं चन्द्रमामें रहनेवाले के पास अन्धकार होना उचित नहीं है, अतः तुम्हें मी अज्ञानमें न पड़कर हमलोगोंकी याचना पूरी करनी चाहिए / अथवाचन्द्रको तम अर्थात राहुसे पराजित होने के समान तुम्हारा ऐसा करना उचित ही है]॥१२४॥ रोहणः किमपि यः कठिनानां कामधेनुरपि या पशुरेव / नैनयोरपि वृथा भवदर्थी हा विधित्सुरसि वत्स ! किमेतत् // 125 // रोहण इति / यो रोहणो मणीनामाकरोऽदिः, सोऽपि कठिनानां मध्ये किमपि कठिनः। या कामधेनुः सापि पशुरेव / एनपोः पशुपाषाणयोरपि सम्बन्धी। द्विती. याटोस्चेनः' इतीदंशब्दस्य एतच्छन्दस्य वा अन्वादेशविषये इनादेशः / अर्थी वृथा विफली नामवत् / हे वरस, किमेतद्विषिरमुर्विधातुमिछुरसि। हेति विषादे। हा कष्टं पशुपाषाणाभ्यामपि तुच्छवृत्तिरसीत्यर्थः // 125 // जो कठिनों ( पक्षान्तरमें-निष्ठुरों ) में रोहण (रोहण नामक पर्वत, सुमेरु अथवा रत्नोंका उत्पत्तिस्थान वैदूर्य पर्वत ) है, यह कुछ ( अत्यन्त कठोर या अत्यन्त निष्ठुर या अत्यन्त कृपण ) है, तथा जो कामधेनु है, वह पशु (ज्ञानशून्य, पक्षान्तरमें-मूर्ख हो) है। इन दोनों के यहाँ भी कोई याचक निराश नहीं हुआ. तो हा ! हे वत्स ! तुम यह क्या करना चाहते हो ? [ अत्यन्त निष्ठुर तथा कृपण वैदूर्य या मेरु पर्वत और पशु एवं मूर्ख कामधेनु भी यदि अर्थियों को निराश नहीं करते तो अत्यन्त कोमल स्वभाववाले तथा विद्वान् तुमको ऐसा करनेकी ( याचना पूरी न करनेकी) इच्छा करना उचित नहीं है, 'चूंकि तुम बच्चे हो और पञ्चेको सावधान कर देना बड़ोंका धर्म है; अतः हम तुम्हें सावधान कर रहे हैं, यह 'वरस' शब्दसे ध्वनित होता है ] // 125 // याचितश्चिरयति क नु धीरः प्राणने क्षणमपि प्रतिभूः कः / शंसति द्विनयनी दृढनिद्रां द्राङ्निमेषमिषघूर्णनपूर्णा / / 126 / / पाचित इति / क्व नु कुत्र, धीरः सुधीर्याचितः सन् चिरयति विलम्बते / न कुत्रापि विलम्बत इत्यर्थः / कुतः, षणमपि प्राणने जीवने, प्रतिभूलग्नकः कः, न