________________ पञ्चमः सर्गः समय जो तुम्हें प्राप्त हो रहा है, वह दूसरेको प्राप्त हो जायेगा; अतः ऐसा (मिलते हुए उत्तम यशका त्याग ) करना तुम्हें उचित नहीं। और कदाचित् ये इन्द्र कल्पवृक्षसे ही दमयन्ती को चाहेंगे तो वह अपनी दानशीलतावश तथा अपना स्वामी होनेके कारण इनके लिए दमयन्तीको अवश्य दे देगा, इस अवस्थामें तुम्हें दमयन्ती नहीं मिल सकेगी, इस प्रकार तुम उक्त यशोलाम तथा दमयन्तीलाम दोनोंसे हाथ धो वैठोगे / इस कारण मी तुम्हें इनकी याचना पूरी करनी चाहिए / और भी-यदि तुम इनकी याचना पूरी नहीं करोगे, तब शतमन्यु अर्थात् सैकड़ों क्रोधवाळे होनेसे ये तुम्हे शाप भी दे देंगे, इस कारण भी इनकी याचना तुम्हें पूरी करनी चाहिए / यहाँ अग्नि भी इन्द्र के साथ कपटपूर्ण व्यवहार कर नल से कहते हैं कि-'ये इन्द्र कल्पवृक्ष के पति है अर्थात् कल्पवृक्षसे भी अपना काम पूरा करा सकते हैं तथा सैकड़ों कोध करनेवाले हैं अतः महाकोधी होनेसे पात्र है, अतः जिसकी याचना दूसरे भी पूरी कर सकें तथा महाकोधी होनेसे जो अपात्र है, उसको दान देकर जिसको कोई देने वाला नहीं तथा जो सत्पात्र है, उसको अर्थात् मुझे दान देना चाहिए अर्थात् आप मेरा दूत कर्म करें ] // 122 // न व्यहन्यत कदापि मुदं यः स्वःसदामुपनयन्नभिलाषः / तत्पदे त्वदभिषेककृतां नः स त्यजत्वसमतामदमद्य // 123 // नेति / स्वासदः स्वर्वासिनः। 'सत्सूद्विष-' इत्यादिना विप / तेषां नः सम्बन्धी योऽभिलाषो मनोरथो मुदमुपनयन् स्वसिद्धया सन्तोषमावहन, कदापि न व्यहम्यत न विहतः। अध, पदे तद्ग्यवसिते, तरसम्पादकाधिकार इत्यर्थः / 'पदं व्यवसि. तत्राणस्थानलचमांघ्रिवस्तुषु' इत्यमरः / स्वदभिषेककृतास्वां स्थापयतां, नः सम्बन्धी सोऽभिलाषः / असमता असाधारण्यं, स्वसिद्धावनन्यापेक्षत्वमिति यावत्। तम्मदं त्यजतु / अद्य प्रभृति स्वार्थसाधने स्वयमेव समर्थाः सुरा इस्यहवारं मुश्चाम इत्यर्थः // 123 // स्वर्गनिवासी हम लोगों की जो अभिलाषा कभी नष्ट नहीं हुई, उसके स्थानपर आपको भभिषिक्त करते हुए हमलोगों की वह अभिलाषा आज असमानता ( मेरे समान कोई नहीं है ऐसे ) के अभिमानको छोड़ दें। [हमलोगों की अभिलाषा आजतक यह समझती थी कि मैं स्वतः पूरी होकर स्वर्ग-निवासी देवताको हर्षित करती हूं, अत एव मेरे समान कोई नहीं है, ऐसा उसको अभिमान हो गया, किन्तु आज आपसे याचना करनेके कारण उस ममिलाषा को अपना उक्त अभिमान छोड़ देना चाहिए। आप हमलोगोंकी अभिलाषा पूरी करें] // 123 // अब्रवीदथ यमस्तमदृष्टं वीरसेनकुलदीप ! तमस्त्वाम् / यत्किमप्यभिबुभूषति तल्किं चन्द्रवंशवसतेः सदृशं ते // 124 // अब्रवीदिति / अथ यमः अहष्टमसन्तुष्टं, तं नकमब्रवीत् / हे वीरसेनकुलदीप !