________________ पञ्चमः सर्गः 325 कोऽषीत्यर्थः / दानिमेषमिषेण शीघ्रपथमपातम्याजेन, घूर्णनेन कनीनिकाभ्रमणेन पूर्णा दिनयनी नयनद्वन्द्वमेव, दृढनिद्रा मरणं, शंसति / नयनघूर्णनवरक्षणिकं जीवन मित्यर्थः // 126 // __याचना करनेपर धीर दाता कहाँ विलम्ब करता है ? अर्थात् कहींपर कोई धीर दाता विलम्ब नहीं करता, किन्तु याचना करते ही तुरन्त दे देता है / क्षणमात्र भी जीने में कौन मध्यस्थ (जिम्मेदार ) है 1 अर्थात् किसी व्यक्तिके क्षणमात्र जीने की जिम्मेदारी कोई नहीं उठा सकता / शीघ्र निमेष ( पलक गिरना) के व्याजसे घरनेसे परिपूर्ण दोनों नेत्र महानिद्रा अर्थात मरणको कह रहे हैं। [जितने समयमें निमेष होता है, उतने ही समयमें मरण हो जाता है, अत एव बुद्धिमान्को बिना विलम्ब किये याचककी अभिलाषा पूरी करनी चाहिए ] || 126 // अभ्रपुष्पमपि दित्सति शीतं सार्थिना विमुखता यदभाजि | स्तोककस्य खलु चञ्चुपुटेन ग्लानिरुल्लसति तद्घनसचे // 127 // अभ्रपुष्पमिति / शीतं शीतलमभ्रपुष्पमुदकम् / 'मेघपुष्पं धनरस' इत्यमरः / तद् धनपुष्पं, तदुर्लभं वरिस्वति च गम्यते। दिसति दातुमिच्छत्यपि / न तु परि. जिहीर्षतीत्यर्थः, घनसङधे मेघवृन्दे, भर्थिना याचकेन, स्तोककस्य चातकस्य / 'अथ सारङ्गः स्तोककश्चातकः समो' इत्यमरः / चक्षुपुटेन सा प्रसिद्धा विमुखता / पक्षिमु. खस्वं पराङ मुखत्यञ्च / अभाजीति यत् / तत्तस्माद्वमुख्यभजनात् / ग्लानिर्जलभरम. न्यरत्वं वैवण्य चोल्लसति स्फुरति / अत्रार्थिन एव वैमुख्ये दातरियं ग्लानिः किमत दातृवैमुख्ये / तस्माताहशस्य तवेदमयिवैमुख्यमनुचितमिति भावः // 127 // चातकके याचक मुखमें ( विलम्ब होनेसे ) जो विमुखता (पक्षीके मुखका भाव) हुई, उस कारण ठंडा जल देनेवाले मेघ-समूइमें मलिनता दिखलाई पड़ती है / पक्षान्तरमें-अपके याचकने नो विमुखता (निराशता ) धारण की, इस कारणसे दुलंम आकाश-पुष्प (वर्षाजल ) देने की इच्छा करते हुए मेघ समूहमें कालिमा अर्थात् जन्म भर के लिए कलङ्क हो गया है। [ तुच्छ तिर्यक् योनिमें उत्पन्न चातकके याचना करने पर थोड़ा विलम्बकर दुर्लम आकाश-पुष्प ( पक्षा०ठंडा जल ) देने के इच्छुक मेघ समूहमें भी जब कालिमारूप कलङ्क हो गया, तब हमलोग-जैसे सत्पात्रों को पहले देनेको कहकर फिर निराश करनेपर तुम्हें बड़ा कलङ्क लगेगा, अतः शीघ्र ही हमलोगोंकी याचना तुम्हें पूरी कर देनी चाहिए ] // 127 // ऊतिवानुचितमक्षरमेनं पाशपाणिरपि पाणिमुदस्य | कीर्तिरेव भवतां प्रियदारा दाननीरझरमौक्तिकहारा // 12 // अविवानिति / पाशपाणिवरुणोऽपि, पाणिमुदस्य उद्यम्य, एनं नलम्, उचितं युक्तम्, अखरं वाक्यम्, अचिवान् उक्तवान् / यदुक्तं तदाह-कीर्तिरिति / दाननी.