________________ पञ्चमः सर्गः 313 शुद्धेति / शुद्ध अवणे, वंशे कुले, वेणौ च / जनितोऽपि / 'वंशो वेणी के वर्ग' इति विश्वः / गुणस्य शौर्यादेः मौर्याच / 'सरवादी रूपादौ शौर्या दो तन्तुषु प्रयो. गज्ञाः / गुणशब्दः शिक्षिन्याम्' इति हलायुधः। स्थानतामाश्रयस्बममापि शकः ऋजुमकुटिलबुद्धिम् , अवक्र / सपक्षं सुहृदं सपत्रं च, एनं नलं, सापकं धनुश्चाप इच / 'अथास्त्रियो धनुश्चापौ-' इत्यमरसिंहामिधानारपुंलिप्रपोगः / अथवायं. शब्द उकारान्तोऽप्यस्तीति उणादी भ्रमशक्यादिसूत्रेण धनधातोः सौत्रे उप्रत्ययवि. धानात् / भाशु / क्षिप्नुः क्षेप्ता सन्, क्षिपेः क्नुः / 'न लोक-' इस्पादिना पष्ठीप्रति. षेधाद् द्वितीयैव / वक्रो जिह्मोऽजनि / श्लिष्टविशेषणेयमुपमेति केचित् / प्रकृताप्रकृत. श्लेष इत्यन्ये // 102 // ___ उत्तम कुल ( कश्यप मुनिके वंश ) में उत्पन्न भी, गुण ( दया, दाक्षिण्य भादि) की आश्रयताको जानते हुए ( नल गुणी हैं, अतः इनके साथ निष्कपट व्यवहार करना चाहिए, यह बात समझते हुए ) भी, (शुद्ध अन्तःकरण होनेसे ) सरल तथा माठों दिक्पाके अंशभूत होनेसे ( या यश आदि द्वारा सर्वदा देवों को सन्तुष्ट करनेसे) अपने पक्षको अर्थात् मित्र इस ( नल ) को ( अपने दूत कर्मके लिए दमयन्ती के पास ) भेजते हुए इन्द्र धनुषके समान कुटिल ( कपटी ) हो गये / धनुषपक्ष मैं-जैसे-दृढ़ बांससे बना भा भी, डोरी (प्रत्यश्चा) के स्थानको प्राप्त किया हुआ भी सीधे तथा पंखों सहित बाणको फेकनेवाला धनुष टेढ़ा हो जाता है, ( वैसे इन्द्र मी टेढ़े अर्थात् कपटयुक्त हो गये ) / [मको दमयन्तीके स्वयंवर में स्वयं सम्मिलित होते हुए जानकर भी इन्द्र ने उन्हें अपना इतकार्य करने के लिए दमयन्तीके पास भेजते हुए महाकपटपूर्ण कार्य करना चाहा] // 102 / / तेन तेन वचसैव मघोनः स स्म वेद कपटं पटुरुच्चैः / आचरत्तदुचितामथ वाणीमार्जवं हि कुटिलेषु न नीतिः / / 103 / / तेनेति / उपचैः पीरतिकुशलः, ल नला, तेन तेन वचसव मघोनः इन्द्रस्य कपटं वेद स्म विवेद / अथ वेदानन्तरं, तदुचितां तस्य कपटस्योचितामनुरूपां वाणीमाचरत् / स्वयमपि कपटोक्तिमेवाकरोदित्यर्थः / तथा हि-कुटिलेषु विषये, आर्जवम. कौटिल्यं नीतिन हि / ततः कुटिलेनैव भवितव्यम् / अन्यथा महान्तमनमृच्छेदिति भावः // 103 // (श्लेषोक्ति तथा वक्रोक्तिको समझने में ) अत्यन्त चतुर उस नहने इन्द्रकी उन-उन बातों ( श्लो० 99-101 ) से ही कपटको जान लिया। ( अथवा-चतुर मलने उन-उन बातोसे ही इन्द्र के कपट अर्यात धूर्तताको जान लिया) इसके बाद उस (कपटन्यवहार ) के योग्य वचन कहा; क्योंकि कुटिलों में सरलता रखना नीति नहीं है / [ 'शठे पाठ्यं समाचरेत्' (शठमें शठता करनी चाहिए )' नीतिके अनुसार नल भी कपटी इन्द्रसे उपयुक्त बचन बोके-] // 103 //