________________ पञ्चमः सर्गः 311 एवमिति / एवं वीरसेनतनये नले, विनयेन अफपटेन, मुक्तविश विसन्धमुक्त वति सति / अथ कार्येषु कर्तग्यायेंषु पानि कैतवानि कपटानि तेषां गुरुरूपदेष्टा शक्रः / वक्रभावः प्रतिकूलाभिप्रायः, तेन विषमा प्रतिकूलां गिरमचे उवाच // 98 // इस प्रकार वीरतनय नलके निर्भय होकर विनय के साथ कहनेपर काममें कपटाचार्य (मथवा-कार्यमें कपट करनेमें गुरुरूप ) इन्द्रने कुटिलतासे विषम (विषतुल्य ) वचन कहा // 98 // पाणिपीडनमहं दमयन्त्याः कामयेमहि महीमिहिकांशो!। दूत्यमत्र कुरु नः स्मरभौतिं निर्जितस्मर ! चिरस्य निरस्य // 16 // पाणीति / हे महीमिहिकाशो भूतलहिमांशो! 'प्रालेयं मिहिका च' इत्यमरः / वयं दमयन्त्याः पाणिपीडनमहं विवाहोत्सवं कामयेमहि अभिलषमहि। हे निर्जितस्मर ! अत एव स्मरभीति चिरस्प निरस्य दूरतो निरस्येत्यर्थः / 'चिराय घिररा. ब्राय चिरस्यायाधिरार्थकाः' इत्यमरः। अत्रोद्वाहकृत्ये नोऽस्माकं दूरस्यं दूतकम। 'दूतस्य भागकर्मणी' इति यत्प्रत्ययः / कुरु // 99 // हे पृथ्वीचन्द्र नरू ! हमलोग दमयन्तीका विवाहोत्सव चाहते हैं / ( देहसौन्दर्य और जितेन्द्रिय होनेसे ) कामको जीतनेवा! बहुत कालसे काम-भय ( कामजन्य विरहपीड़ा) को छोड़कर इस दमयन्तीके विवाहोत्सवरूप कार्यमें हमलोगोंका दूत कर्म करो। [जिते. न्द्रिय एवं सुन्दरतम होनेसे तुमने काम-विजय कर लिया है, अतः तुम्हें दमयन्ती विरह. सम्बन्धी कामपीड़ा नहीं होनी चाहिए, तथा इस गुणके कारण काम-विजयी होनेसे तथा काम-भयका त्याग कर देनेसे दूत कर्मके समय दमयन्तीको देखकर मी तुम्हारे मनमें कोई कामज विकार नहीं होगा और न तो कामजन्य पीडाका ही कोई मय रहेगा / अतः दमयन्तीके यहाँ हमलोगोंका दूत कर्म करने के योग्य हो और पृथ्वीचन्द्र होनेसे तुम हमलोगोंका दूत कर्म करके हमारे सन्तापका नाश करो। पक्षान्तरमें-इन्द्र अपने साथी यम आदि तीनों देवोंसे मी कपटकर केवल अपना दूत-कर्म करने के लिए नलसे कह रहे हैं, यथा-हे पृथ्वीचन्द्र ( नल ) ! मैं उत्सववाले दमयन्तीके विवाहको चाहता हूँ, हमलोगों में से (मेरा) दूत-कर्म करो, हे काम-विजयिन् ! इस विषयमें भयको छोड़ो (मथवाविरुम्बको छोड़ो अर्थात् दूत कर्म करने में विलम्ब मत करो), मुझसे भयको स्मरण करो अर्थात् दूत-कर्म नहीं करने पर या इस कार्य में विलम्ब करनेपर मैं तुम्हें शाप दूंगा, इस भयको तुम स्मरण रखो ] // 99 // आसते शतमधिक्षिति भूपास्तोयराशिरसि ते खप्लु कूपाः / किं ग्रहा दिवि न जाप्रति ते ते भास्वतस्तु कतमस्तुलयाऽस्ते // 10 // आसत इति / अपिपिति पिसी। विमापण्ययीभावः। शतं भूपाः भासते 21 नै०