________________ 301 पञ्चमः सर्गः नास्ति जन्यजनकव्यतिभेदः सत्यमन्नजनितो जनदेहः / वीक्ष्य वः खलु तनूममृतादां हनिमजनमुपैति सुधायाम् / / 64 // नास्तीति / जन्यजनकयोः कार्यकारणयोयतिभेदो नास्ति, कार्य स्वोपादानाद. मिममित्यर्थः / जनदेहः भन्नजनितः मुकाहारपरिणामश्चेत्येतदुभयं सत्यमित्यर्थः / कुतः, अमृतभदन्तीस्यमृतादः / अदोऽनन्ने' इति विट प्रत्ययः / तेषाममृतादाममृतभुजा, वो युष्माकं, तनूं भूति, वीच्या रष्टिः सुधायां निमजनसुपैति खलु सुधामजन. सुखमनुभवतीत्यर्थः / जनदेहानामन्नजन्यरवे तहदेव युष्मदेहानामपि तथास्वे कथ. मेतत्सुधाकार्यकारित्वं न स्यादित्यर्थः / युष्मदर्शनादेव तावस्कृतार्थोऽस्मीति भावः॥ 'जन्य तथा जनक अर्थात् कार्य तथा कारणमें भेद नहीं है यह, और जन- शरीर अन्न ( भक्ष्य पदार्थ ) से उत्पन्न है, यह ( ये दोनों ) कथन सत्य हैं)। अमृत को खानेवाले आप लोगों के शरीरको देख कर ( मेरी ) दृष्टि अमृतने निमग्न हो रही है अर्थात् अमृतमें स्नान करनेसे जो सुख मिलता है, वह सुख आपलोगों को देखनेसे मिल रहा है। [यहां अमृत कारण तथा उन इन्द्रादिका शरीर अमृत मक्षण करके उत्पन्न होनेसे कार्य है, अतः उस अमृतमक्षी शरीरके देखनेसे अमृतदर्शनके समान आनन्द होना स्वाभाविक ही है। अथवा अन्न जन्य जन-देह मन्य जनक भेदसे रहित है ] // 94 // मत्तपः क नु तनु क फलं 'वा यूयमीक्षणपथं व्रजथेति | 'ईदृशान्यपि दधन्ति पुनर्नः पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति // 5 // मदिति / तनु स्वल्पं मत्तपः क ? / यूयमीक्षणपथं वजथेति फलं युष्मदर्शनरूपं महाफळं वा क ? वैरूप्यादिति भावः / अत एव विरूपघटनारूपो विषमालङ्कारः। अथवा ईशानि ईदृङमहाफलान्यपि दधन्ति पुष्णन्ति / 'वा नपुंसकस्य' इति नुमागमः / पुनःशब्दो वाक्यालङ्कारे / नोऽस्माकं पूर्वपूरुषतपांसि जयन्ति तानी. दानी फलन्तीत्यर्थः॥ 95 // ___ मेरा थोड़ा-सा तप कहां 1 ( महापुण्यसे प्राप्त होनेयोग्य ) आप लोग जो दृष्टिगोचर हो रहे हैं, यह फल कहाँ ? ( थोड़ेसे पुण्यके द्वारा अधिक पुण्यके मिलने योग्य आपलोगोंका दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है ) / ऐसे ( आपसे दर्शनरूप फलको उत्पन्न करनेवाले / अथवा-ऐसे फलरूपमें परिणत हुए ), हमारे पूर्वनों के पुण्य ही सर्वोत्कृष्ट हो रहे हैं (जिन के प्रभावसे आपलोगों के दर्शनका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है)। अथवा-सर्वोत्कृष्ट, हमारे पूर्वजोंके पुण्य ऐसे (भाप लोगों के दर्शनरूप फलमें) परिणत हो रहे हैं। [ 'ईदृशान्यपि फलानि ददन्ति' 1, 'यत्' इति पाठान्तरम्। 2. 'ईदृशान्यपि फलानि ददन्ति' इति 'ईदृशं परिणमन्ति फलं नः' इति पाठान्तरे।