________________ पञ्चमः सर्गः 315 ( मेरे निषेध ) वचनसे कब्जा भने ही हो, (किन्तु ) निषेध नहीं किया गया दूसरों (आप लोगों ) का वचन स्वीकृत न होने पायै / [ यदि मैं निषेध नहीं करूंगा, तब 'मौनं स्वीकार-क्षणम्' सिद्धान्त के अनुसार आपलोगों के कहे हुए दमयन्तीके पास जाकर दूतकार्य करनेका पवन स्वीकृत समझा नायगा, अतः निषेध करना मेरे लिए लज्जाजनक भले ही हो, किन्तु दमयन्तीकी प्राप्तिमें वापक मौन-धारण नहीं करूँगा] // 105 // यन्मतौ विमलदर्पणिकायां सम्मुखस्थमखिलं खलु तत्त्वम् / तेऽपि किं वितरयेदृशमाज्ञां या न यस्य सहशी वितरीतुम् // 106 // तत्र तावत्ताशुपालभते-पदिति / येषां वो मतावेव विमणिकायो निर्मादशै, अखिलं तर वह पम्मुखस्थं प्रत्यहं खलु / ते सर्वज्ञा अपि यूयमीरशम्रता प्रकाराम् / 'त्यदादिषु--' इत्यादिना दृशेः काप्रत्ययः / आज्ञा किं वितश्य रस। कीरश्यत पाह-येति / या यस्य मे वितरीतुं दातुं, साशी थोग्या न। तस्माश्रयं ममोपाळभ्या इत्यर्थः // 106 // निर्मल दर्पणरूप, बिन भापलोगोंकी बुद्धि में सम्पूर्ण तत्व ( कर्तव्य तथा अकर्तभ्य कार्य) प्रत्यक्ष हैं, वे भापलोग, जिसे जो भाशा देना ठीक नहीं है, उसे ( मुझे) वह बाशा क्यों देते हैं ? [ पुन्दर, युवा तथा दमयन्तीका कामुक मेरे लिए दमयन्तीके पास आपलोगोंका दूत-कम करनेकी भाषाका पालन करना अयोग्य होनेपर मो उक्त आशा आपलोग क्यों मुझे दे रहे है ? यह भाषा मुझे देना आपलोगों को उचित नहीं है / ] // 106 // यामि यामिह वरीतुमहो तदूततां तु करवाणि कथं वः / ईशां न महतां बत जाता वचने मम तृणस्य घृणापि / / 107 // अथाष्टभिरयोग्पतामेवाह-यामीत्यादि / इहास्मिन् समये, यां भैमी वरीतुम् / 'वतो वा' इति दीर्घः / यामि गपछामि / तद्भूततां तु तस्यामेव विषये दूत्यं तु कथं वः करवाणि / महो ईशा महतां वः / तृणस्य तृणकल्पस्य, मम वडने प्रता. रणे, घृणा कृपा जुगुप्सा वापि, न नाता / बतेति खेदे // 107 // जिप्त दमयन्तीका वरण करनेके लिए मैं जा रहा हूँ, वह मैं उस दमयन्ती का दूत-कम कैसे करूँगा ? अर्थात् कमी नहीं करूंगा, अहो ( आपलोगों का ऐसा कहना माश्वर्य है)। ऐसे ( सर्वश एवं दिक्पाल होनेसे विश्वपूज्य ) बड़े आपलोगोंको तृण (रूप मुझ नल) को ठगनेमें दया ( या घृणा) नहीं हुई ? खेद 1 / [ बड़े लोगोंको पहले तो चित है कि वे किप्तीको ठगनेका विचार ही न करें, यदि करें मी तो उन्हें बड़े लोगों को ही ठगना चाहिए / मनुष्य होनेसे देवताभोंकी अपेक्षा भत्यन्त तुच्छ मुझे ठगने में तो भाप जैसे देवताभोंको दया होनी चाहिए ऐसा तुच्छ काम मैं क्यों करू' इस विषय में घृणा होनी चाहिए / अथवा-कपरका उत्तर कपटसे ही नल दे रहे हैं कि-बड़े लोगोंके समुदायमें