________________ 320 नैषधमहाकाव्यम् / विलोकने लोलो लोलुपस्सन् / स्ववाक्यानुमोदनार्थमिति भावः / किमपि किशिद्वा. क्यं शंसति स्म शशंस // 16 // उस समय नहके ऐसे (को० 104-115) कथनोंको सुनकर अपने अनुगामियों ( यमादि तीनों दिक्पालों ) का मुख देखते हुए (देखिये, यह नल मनुष्य होकर मी तथा पहले हमलोगों की याचना स्वीकार करके भी अब उसे पूरी नहीं कर रहा है, अतः अब आपलोगों की इस विषयमें क्या इच्छा है ?, भयवा-यह नल इतनी चतुरतासे वोल रहा है, इस अभिप्रायसे अपने साथियोंका मुख देखते हुए ) तथा कुछ मुस्कुराते हुए इन्द्र बोले (अथवा मुस्कुराते हुए कुछ बोले )- // 116 // नाभ्यधायि नृपते ! भवतेदं रोहिणीरमणवंशभवेन / लज्जते न रसना तव वाम्यादर्थिषु स्वयमुरीकतकाम्या // 117 // नेति / हे नृपते ! भवता इदम् / सेयमुक्तरेत्यादि प्रतिपेषवाक्यम् / रोहिणी. रमणवंशमवेन सोमवंश्येनेव नाग्यधाथि / किं स्वसोमवंश्येनेवाभिहितमित्यर्थः / प्रतिश्रुतपरित्यागादिति भावः। कुतः, अर्थिषु विषये स्वयमुरीकृतकाम्या अङ्गीकृत. मनोरथपूरणा तव रसना, वाक्यात् प्रातिकूण्यान्न लज्जते / ततो न सोमवंश्य इव प्रतिभासीत्यर्थः॥ 117 // हे राजन् ! चन्द्रवंशोत्पन्न आपने यह (को० 104-114) नहीं कहा ? अर्थात अवश्य का / स्व (इमलोगोंकी ) कामना अर्थात याचनाको स्वीकार करनेवाली मापकी जिहा आपके (हमलोगों ) से प्रतिकूल होने (पहले स्वीकार कर फिर बदल जाने ) से नहीं लज्जित होती ? अर्थात उसे अवश्य ही लज्जित होना चाहिए / [ चन्द्रवंशोत्पन्न व्यक्ति किसीकी याचनाको अस्वीकार नहीं करता और उसे स्वीकार कर यथावत पालन भी करता है आपने तो मानो 'आप चन्द्रवंशोरपन्न ही नहीं हैं। ऐसी बात कही / अथवारोहिणीरमण अर्थात् बैठके वंशमें उत्पन्न (पशु) आपने यह नहीं कहा ? आप पहले स्वीकारकर अब जो अस्वीकार कर रहे हैं, यह पशु के समान कार्य है, पशु भी पहले खाये हुए घास मादिको फिर जुगाली करने के लिए पेटसे बाहर वमन करता (निकालता) हुमा लज्जित नहीं होता, वैसे ही आप कर रहे हैं। अथवा-रोहिणीरमण ( मद्य पीनेवाले बरू. राम ) के वंशमें उत्पन्न मापने यह नहीं कहा 1 ठीक है जो मद्य पीनेवाले के वंशमें उत्पन्न व्यक्ति है, पहले यह किसी बातको स्वीकार कर बाद में अस्वीकार करने में लज्जित नहीं होता / अतः शुद्ध चन्द्रवंशोत्पन्न मापको ऐसा करना उचित नहीं है ] // 117 // भगुरश्च वितथं न कथं वा जीवलोकमवलोकयसीमम् / येन धर्मयशसी परिहातुं धीरहो चलति धीर ! तवापि // 118 / / मगुरमिति / हे धीर विद्वन् ! इमं जीवलोकं प्राणिजातम् / भारं विनश्वर,