________________ पञ्चमः सर्गः 305 मूख दूर करते हैं, उसी प्रकार हमारा मांगना व्यर्थ न होवे' इस प्रकारके सन्देहसे उत्पन्न भयसे आनेवाली मूच्छ की चिकित्सा दान देते समय याचकके हायपर दिया गया संकल्प का जल होता है / अर्थात् उस सङ्कल्पजलके हाथमें आते ही याचकको अपनी याचनाकी सफलता होनेसे संशय दूर हो जाता है ] // 85 // अर्थिने न तृणवद्धनमात्रं किन्तु जीवनमपि प्रतिपाद्यम् / एवमाह कुशवजलदायी द्रव्यदानविधिरुक्तिविदग्धः / / 86 // अर्थिन इति / कुशवतो जलस्य दायो दानम् / ददातेघज / युगागमः / स प्रतिपाचत या अस्मिन्विधावस्तीति कुशवज्जलदायी सकुशजलदानप्रतिपादक इत्यर्थः / अत एवोकिविदग्धः / अभिधाग्यापारमन्तरेणार्थादेवार्थान्तरप्रतिपादनचतुर. इत्यर्थः / द्रग्यदानविधिर्धनदायकशाखमेवमाह। किमिति अथिने धनमान धनमेव / 'मानं कारस्न्येऽवधारणे' इत्यमरः / तृणवत्तणमिव न प्रतिपाद्यं न देयम् / किंतु जीव. नमपि जीवितमपि तथा देयमिति / सकुशं जलं देयमिति च गम्यते / अध्यनपेक्षि. तकुशजलदानं विदधतो द्रव्यदानविधेरयमेवाभिप्राय इति भावः // 86 // पवित्र कुशके साथ संकल्पजलको दिगनेवाली, बोध कराने में चतुर वस्तुको दान कराने की विधि अर्थात शास्त्रीय विधान, 'याचकके लिये तृणके समान धनको ही नहीं, अपितु प्राणों को भी देना चाहिये' ऐसा कहती है / ['कुशवत्सलिलोपेतं दानं सङ्कल्पपूर्वकम्' ( कुश तथा जलसे युक्त सङ्कल्पपूर्वक दान करे ) इस शास्त्रीय वचनमें पवित्र कुशाके साथ जल देकर दान करने का विधान है, अतः इस शास्त्रीय वचनका यह भाशय है कि-दाता जिस प्रकार तृणवत् (तृणके समान, पक्षान्तरमें-तृणयुक्त) धनको तुच्छ समझकर याचकके लिये देता है, उसी प्रकार जीवन (प्राण, पक्षान्तरमें-सङ्कल्पजल ) मी याचकके लिये देना चाहिये अर्थात याचकके लिये तृणवत् ( कुशायुक्त ) जसको ( पक्षान्तरमें-तृगके समान प्राणोंको ) मी देना चाहिये ] // 86 // पङ्कसङ्करविगर्हितमहं न श्रियः कमलमाश्रयणाय | अर्थिवाणिकमलं विमलं तद्वासवेश्म विदधीत सुधीस्तु // 87 // पङ्केति / पकः पापं कदमश्च / 'पलोऽस्त्री कर्दमैनसोः' इति वैजयन्ती / तत्सरेण विगर्हितं, कमलं श्रियः भाश्रयणाय नाहम् / तत्तस्मारसुधीविमलं निष्पकमाथिमाणि. कमलं तद्वासवेश्म लचमीनिवासस्थानं, विधीत / सर्वथा धनं पात्रपाणिष्वेव निक्षे. प्सम्यम् / न तु भूमाविति भावः / 87 // ___ कीचड़ ( पक्षान्तरमें-पाप ) के संसर्गसे दृषित ( पक्षान्तर में-निन्दित ) कमल लक्ष्मी ( पक्षान्तरमें-सम्पत्ति ) का भाश्रय अर्थात् निवासस्थान नहीं है, अत एव विद्वान् (दाता) निर्मल ( पक्षान्तरमें-सुपात्र होनेसे अनिन्दित ) याचकके इस्तकमलको उस