________________ 300 नैषधमहाकाव्यम् / क्वेति / हे नक, क प्रयास्यसीस्युक्त्वा पृष्ट्वा अलं, न प्रष्टण्यमित्यर्थः / 'अलं. खश्वोः' इत्यादिना बरवाप्रत्ययः। कुतः, यद्यस्मान्नोऽस्माकमन्त्र यात्रया इहागमा नेन, शुभया स्वदर्शनेन सफलया, अजन्यभावि / भावे लुछ। तत्तस्मात् , फलेन सस्वरया फलार्थिन्या तया, यात्रयैव का, स्वमिदमवनोऽर्धमधमार्गमागमितो न किम् ? / अस्मपथमेवेदं तवागमनमित्यर्थः // 75 // 'हे नल ! कहा जावोगे' यह कहना निरर्थक है, क्योंकि हमलोगोंकी यहांपर (इस मार्गमें या इस कार्यारम्भमें ) यात्रा शुभ हो गयी। सो तुम्हें फलमें शीघ्रता करनेवाली अर्थात् शीघ्र सफल होनेवाली इस यात्राने ही यहां आधे रास्तेमें नहीं ला दिया हैं क्या ? [ तुम्हारी सहायता शीघ्र सफल होनेवाली हमलोगोंकी यात्राने ही हमारा सहायक बननेके लिए यहां बीच रास्तेमें तुम्हें ला दिया है, इससे 'कहां जावोगे ?' यह पूछना व्यर्थ है। कौकिक व्यवहार के अनुसार भी कहीं जाते रहनेपर 'कहाँ जावोगे' इस प्रकार पृछना अशुभ माना जाता है ] // 75 // एष नैषध ! स दण्डभृदेष ज्वालजालजटिलः स हुताशः / यादसां स पतिरेष च शेषं शासितारमवगच्छ सुराणाम् / / 76 / / के यूयमत आह-एष इति / हे नैषध ! नल ! एष इति पुरोवतिनो हस्तेन निर्देशः। स प्रसिदो दण्डभृयमः, एष ज्वालजालैजरिलो बटावान् / ज्वालामालाकु. लीत्यर्थः / वयोवालकीलो' इत्यमरः / पिच्छादिस्वादिल / स हुताशोऽग्निः, एष च सपादसा पतिवरुणः, शेषं शिष्टं स्वमित्यर्थः / सुराणां शासितारम् अवगच्छ देवेन्द्रं विदि // 76 // हे नल ! यह दण्डधारी ( यम ) है, ज्वाला- समूहरूप जटाको धारण किए हुए ये अग्नि हैं, ये जलाधीश ( वरुण ) हैं और शेष ( मुझे ) देवतामोंका शासक अर्थात् देवराज इन्द्र समझो। ['दण्डभृत्' भादि विशेषण उनके प्रति भादराधिक्य दिखाने या इनकी माझा अनुबानीय है' यह नलको संकेत करने के लिये है, साथ ही अपने को सा देवोंका मी शासक बतलाकर इन्द्रने 'मेरी आशा विशेष रूपसे मनुल्लङ्घनीय है, अतः मैं भविष्य में बो दूत कार्य करनेको कहूँ, उसे तुम्हें अवश्य स्वीकार करना चाहिए। अन्यथा तुम्हें दण्ड भोगना पड़ेगा, क्योंकि नो देवोंका शासक है, उसे मनुष्यका शासन करना अत्यन्त सरक है' इस बातको भोर नलको संकेत किया है ] // 76 // अर्थिनो वयममी समुपैमस्त्वां किलेति फलितार्थमवेहि | अध्वनः क्षणमपास्य च खेदं कुर्महे भवति कार्यनिवेदम् // 7 // अर्थिन इति / हे नल ! अमी वयमर्थिनः सन्तस्या समुपैमः किल प्राप्नुमः खलु।