________________ पञ्चमः सर्गः समुपपूर्वादिणो लटि मस। इति फलितार्थमवेहि विधि।. पणमध्वनः खेदमपास्य अध्यक्षम नीत्वा भवति स्वयि कार्यनिवेदं कार्यविशेषनिवेदनम् / विदेण्यन्ताइम्प्रत्ययः / कुर्महे // 77 // संक्षेपमें फलितार्थ कथन यह है कि 'ये हमलोग याचक होकर तुम्हारे पास भा रहे हैं। कुछ समय तक रास्तेको थकावट दूरकर (थोड़ी देर मुस्ताकर ) आपसे हमलोग अपने कार्यकी प्रार्थना करेंगे' // 77 // ईदृशीं गिरमुदीर्य बिडौजा जोषमाप न विशिष्य बभाषे / नात्र चित्रमभिधाकुशलत्वे शैशवावधि गुरुर्गुरुरस्य // 78 // ईशामिति / विडोजाः इन्द्रः, ईदृशी सामान्यनिर्विष्टां, गिरमुवीर्य जोर्ष मौन. माप / 'तूष्णीं जोषं भवेन्मौनम्' इति हलायुधः। विशिष्य विविध्य, न बभाषे विशेषं नाचष्टेश्यर्थः, अत्रास्मिाभिधाकुशलरवे उतिचातुर्य, चित्रं विस्मयो न / कुतः, अस्येन्द्रस्य शैशवमवधिर्यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा तदारम्येत्यर्थः / गुरुरा. चार्यों गुरुबृहस्पतिः / वाचस्पतिशिष्यस्य वाग्मिावं किं चित्रमित्यर्थः। 'गुरुर्गीपति. पित्रादौ' इति वैजयन्ती // 70 // ऐसा वचन (श्लो० 74-77 ) कहकर इन्द्र चुप हो गये, विशेष रूपसे ('दमयन्ती के लिये मेरा दूत बनों इस प्रकार स्पष्ट रूपसे) नहीं कहे। (इन्द्रके) इस प्रकार कहने की चतुरतामें कोई आश्चर्य नहीं है, जिसके शिक्षक बचपनसे हो बृहस्पति है // 78 // अथिनामहृषिताखिललोमा स्वं नृपः स्फुटकदम्बकदम्बम् / अर्चनार्थमिव तच्चरणानां स प्रणामकरणादुपनिन्ये // 6 // अर्थीति / अधिनाम्ना अर्थिनामश्रवणेन, हृषिताखिललोमा रोमानिततनुः, 'होमसु' इति वैकल्पिक इडागमः / नृपः, स्वमात्मानं, तचरणानामर्चनार्थ स्फुटकदम्बकदम्बं विकसितनीपकुसुमवृन्दमिवेत्युस्प्रेक्षा। प्रणामकरणात्तयाजादुपनिन्ये समर्पयामास॥७९॥ __'अर्थी' अर्थात् इन्द्रादि याचकों के नाम ( अथवा-'याचक' इस शब्द ) से रोम-रोममें हर्षित नलने हर्षसे खिले हुए कदम्ब-समूहके समान अपनेको मानो उनकी पूजा करनेके लिये प्रणाम करनेसे चरणोंको समर्पण कर दिया। [ 'अर्थी' का नाम सुनकर हर्षसे नक विकसित कदमके समान रोमानित हो गये। फिर जैसे कोई देवतामोंके चरणों में पुष्प समर्पण कर उनकी पूजा करता है वैसे ही पुष्पित कदम-समूहके समान अपने शरीरको साष्टाङ्ग दण्डवत करनेसे उनके चरणोंपर रख दिया ] // 79 //