________________ पञ्चमः सर्गः 265 कामनीयकमिति / कौशिक इन्द्रः, अधःकृतकामं निरस्कृतमइन, तदीयं नलीयं, कामनीयकं कमनीयत्षं सौन्दर्यम् / 'योपधाद् गुरूपोत्तमाद् वु' / कामं प्रकामा मचिभिः। सहस्त्रेणेति भावः / अवेचय, अथ स्वमात्मानमखिलं यथा तथा, साकल्ये. नेत्यर्थः / परिपश्यन् कौशिकमुलूकमेव / 'महेन्द्रगुग्गुलुलुकग्यालमाहिषु कौशिकः' इत्यमरः / मन्यते स्म खलु / नलस्यात्मनश्चैतावदन्तरमित्यमस्तेत्यर्थः। तथा चास्य भैमीनिराशं मनो बभूवेति भावः // 64 // कौशिक (इन्द्र ) ने कामदेवको तिरस्कत करनेवाली नलकी सुन्दरताको नेत्रों (सहस्रनेत्रों) से अच्छी तरह देखकर अपने को सर्वत्र अच्छी तरह देखते हुए कौशिक ( उल्लू) ही मानते थे / [ 'नलके सामने मैं उल्लू के समान ही हूँ' ऐसा इन्द्र समझते थे। कौशिकका कौशिक होना उचित ही है / सहस्र नेत्र होनेसे नलकी सुन्दरता तथा अपनेको अच्छी तरह देखकर इन्द्रका वैसा मानना भ्रमशून्य ही था ] // 64 // रामणीयकगुणाद्वयवादं मूर्तमुत्थितममुं परिभाव्य / विस्मयाय हृदयानि वितेरुस्तेन तेषु न सुराः प्रबभूवुः // 65 // रामणीयकेति / सुरा इन्द्रादयः, अमुं नलं, मूत मूर्तिमन्तम्, उस्थितमुत्पन्नं रामः णीयकं सौन्दर्य, कामनीयकवरिसद्धं तदेव गुणस्तस्थायमेकमेवेति वादं प्रवाद, परि. भाज्य निजगदेकसुन्दरं मरवेत्यर्थः / हृदयानि चित्तानि, विस्मयायाद्भतरसाय, वितेरुदंदुः / तेन दानेन, तेषु हृदयेषु विषये न प्रबभूवुः तेषां नेशिरे / दत्तद्ग्ये स्वस्वनिवृत्तेरिति भावः / विस्मयाकृष्टचित्ता बभूवुरिति परमार्थः // 65 // (इन्द्र आदि चारों ) देवोंने सौन्दर्यगुणक अद्वैतवादरूप उत्पन्न मूर्तिमान् इस ( नल) को विचारकर ( 'ऐसा सौन्दर्य संसारमें कहीं नहीं देखा या सुना' ऐसा विचारकर अपने अपने ) हृदयको आश्चर्य के लिये दान कर दिया अर्थात वे माश्चर्ययुक्त हो गये, उस कारण उन ( अपने अपने हृदय ) पर उनका अधिकार नहीं रहा अर्थात् हृदयशून्य होकर वे देव यह नहीं सोच सके कि 'अब हमें क्या करना चाहिये / [अन्य भी कोई व्यक्ति किसीको अपनी कोई वस्तु देकर फिर उसका अधिकारी नहीं रहता, अतएव अपने अपने हृदयको विस्मयके लिये दानकर ( समर्पित कर ) विचारक हृदयपर इनका अधिकार न रहनेसे उनका विचारशून्य होना उचित ही है। ] // 65 // प्रेयरूपकविशेषनिवेशैः संवदद्भिरमराः श्रुतपूर्वैः / एष एव स नलः किमितीदं मन्दमन्दमितरेतरमूचुः // 16 // प्रेयरूपकमिति / अमरा इन्द्रायः, श्रुतपूर्वः पूर्व श्रुतैः, 'सुप्सुपा' इति समासः। सम्प्रति, संवदद्भिः प्रत्यक्षसंवादं व्रजद्भिः, प्रियरूपस्य भावः श्रेयरूपकं सौन्दर्यम् / 20 नै०