________________ पञ्चमः सर्गः 263 समय नहीं पा सके, (तब तक ) ध्वनि सुनने के साथ ही पहुंचे हुए अत्यन्त समीपमें रथ को देखा। [ध्वनिके साथ ही रथके आनेसे उसका शीघ्र चलना तथा गम्भीर शब्द होना व्यक्त होता है ] // 59 // सूतविश्रमदकौतुकिभावं भावबोधचतुरं तुरगाणाम् / तत्र नेत्रजनुषः फलमेते नैषधं बुबुधिरे विबुवेन्द्राः // 10 // सूतेति / एते विबुधेन्द्रास्तत्र रथे सूतस्य सारथेः, विश्रमदो विधान्तिप्रदः, कौतुकिभावो विनोदिवं यस्य तं, विनोदार्थ स्वयं प्रतिपन्नसारथ्यमित्यर्थः / अत्र हेतुः तुरगाणां भाववोधचतुरम् अश्वहृदयवेदिनं, नेत्रजनुषो नेत्रदत्तायाः फलं, लोचनासेचनकमित्यर्थः / नैषधं निषधानां राजानं नलम् / जनपदशब्दात् सत्रियाः दण् / बुबुधिरे ज्ञातवन्तः // 60 // इन देवेन्द्रोंने उस रथपर सारथिको विश्राम देनेके कौतूहलवाले तथा घोड़ोंके भाव. शानमें चतुर भौर नेत्रके जन्म लेनेका फलभूत नलको जाना। [ सारथिको हटाकर स्व रथ हांकते हुए, घोड़ों के हृदयङ्गत आशयके ज्ञाता और नेत्रप्राप्तिका फल रूप अर्थात नेत्रों को आनन्दित करनेवाले नलको उस रथपर देवताओं ने देखा] // 60 // वीक्ष्य तस्य वरुणस्तरुणत्वं यदभार निबिडं जडभूयम् / नौचिती जडपतेः किमु सास्य प्राज्यविस्मयरसस्तिमितस्य // 61 // वीच्येति / वरुणस्तस्य नलस्य, तरुणरवं तारुण्यं, तारुण्यभूषितरूपमित्यर्थः / चीचय यविधिडं जडभूयं जढवं स्तम्माख्यं साविकमित्यर्थः / 'भुवो भावे' इति क्यप / धभार / प्राज्येन प्रभूतेन, विस्मयरसेनाद्धृतरसेन, जलेन च / स्तिमितस्य निमलस्य, जलपतेः स्तम्धपतेरति उलयोरभेदात् , सा जभूयं, विधेयप्राधान्यात् बोलिझता। औचिती उचितकर्म, न किमु भवस्येवेत्यर्थः / विस्मयरसाविष्टस्य स्तम्भसरवादिति भावः / जलसिकस्य स्वयं जडभावस्य जाड्यमुचितमिति व्यज्यते // __ वरुण नलका सौन्दर्य देखकर जो अत्यन्त महता (स्तब्धता, दीनता जलरूपता) धारण कर लिये वह अत्यधिक आश्चर्य रससे स्तम्धीभूत जलपति (जलाधीश, पक्षान्तरमें-जडा. धीश अर्थात् मूर्खराज ) के लिये उचित नहीं था क्या ? अर्थात् उचित ही था। [ वरुण नलके तारुण्य-सौन्दर्यको देखकर दमयन्तीके पाने की आशा छोड़कर खिन्न हो गए, अथवा-चिन्ताके कारण उत्पन्न जहतासे स्तब्ध हो गये। बडाधीश (मूर्खराज पक्षा०-अलपति) वरुणके लिये जमाव (जडता, पक्षा०-जलत्व ) धारण करना उचित ही है / / 61 //