________________ 264 नैषधमहाकाव्यम् / रूपमस्य विनिरूप्य तथातिम्लानिमाप रविवंशवतंसः / कीर्त्यते यदधुनापि स देवः काल एव सकलेन जनेन // 62 // रूपमिति / रविवंशवतंसो यमा, अस्य नलस्य, रूपं सौन्दर्य, विनिरूप्य विभाव्य / तथा तेन प्रकारेण, अतिम्लानिमतिवैवर्ण्यम्, अतिकालिमानमित्यर्थः / आप / यद्यथा, अधुनापि स देवो यमः, सकलेन जनेन / काल एव काल इत्येव, कीर्यते / तथा ग्लानिमापेति पूर्वेणान्वयः। नानुभावकालिमयोगादयं कालो न तु प्राण्यायुःकलनादिति भावः / अत्र यच्छब्दस्य कारणपरत्वेन ब्याख्याने स्वभपेक्षितार्थाभिधानमनन्वयश्च स्यात् / प्रकारार्थत्वे तु न कश्चिद्विरोधः। प्रकारार्थवा निपातानामनेकार्थवादविरुद्धमित्यर्थः // 62 // सूर्य-कुल-भूषण यमने इस नलके रूप को अच्छी तरह देखकर उस प्रकारको अत्यन्त कालिमाको प्राप्त किया, जिससे आज भी उस देव ( यम ) को सब लोग 'काल' ( काला, पक्षान्तरमें-'काल' नामवाले ) ही करते हैं। [जो सूर्य कुलभूषण है, उसको अत्यन्त प्रकाशमान उज्ज्वछ होना चाहिये, किन्तु उस यमको इसके विपरीत काला होने में तात्कालिक नलको देखनेसे उत्पन्न अतिशय मलिनता ही कारण है। यम भी नलको देखकर दमयन्तीको पाने की आशा छोड़ अत्यन्त खिन्न हो गये ] // 32 / / यद् बभार दहनः खलु तापं रूपधेयभरमस्य विमृश्य | तत्र भूदनलता जनिकी मा तदप्यनलतैव तु हेतुः / / 63 / / यदिति / दहनोऽग्निरस्य नलस्य, रूपमेव रूपधेयं सौन्दर्यम् / 'नामरूपमागेभ्यः स्वार्थे धेयो वक्तव्यः' इति स्वार्थे धेयप्रत्ययः / तस्य भरं समृद्धि, विमृश्य विचार्य, तापं बभार खस्विति यत् / तत्र तापभरणे, अनलता अग्निवं, जनिकी जन्मकरी, उत्पादिका मा भूत् / नलरूपदर्शनजन्यतापे तस्या अप्रयोजकरवादिति भावः / किन्तु तदपि तथापि चित्रमनलतैवाग्नित्वमेव हेतुरिति विरोधः। नलवाभावहेतु. रिति परिहारः / अतएव विरोधाभासोऽलकारः // 63 // मग्निने इस नलके अत्यन्त सौन्दर्यको देखकर जिस सन्तापको ग्रहण किया, उसका उत्पादक अनलता (भग्नित्व ) नहीं हुमा ( स्वयं अपनेको सन्तप्त करना अर्थात् एक अग्नि का ही कर्ता तथा कर्म होना असम्भव है ), तथापि अनलता (अ+नलता अर्थात् नलाभाव ही उसका कारण हुआ। [अग्निने यह सोचकर सन्ताप धारण किया कि-यदि मैं नल होता तब दमयन्ती मुझे ही वरण करती, अब मुझे नल नहीं होनेसे वह इस नलको वरण करेगी, अतः नलाभाव ही उस अग्निका सन्ताप-कारण हुआ. अग्निस्व नहीं ] // 63 // कामनीयकमधःकृतकामं काममक्षिभिरवेक्ष्य तदीयम् / कौशिकः स्वमखिलं परिपश्यन् मन्यते स्म खलु कौशिकमेव / / 64 //