________________ 288 नैषधमहाकाव्यम्। हो ठीक है। इस प्रकार घृताचीने लम्मा श्वास निकलनेसे मुखसे बिना बोले ही कह दिया। [प्राण भी श्वासरूप हैं, अतएव अधिक दुःखके कारण लम्बा श्वास निकलनेसे मानो प्राणोंका बाहर निकल जाना ( मेरा मर जाना ) ही अच्छा है, ऐसा बिना मुखसे कुछ कहे केवल संकेतसे ही घृताचीने कह दिया। अन्य किसी मरणासन्न व्यक्तिका जब श्वास अत्यधिक बढ़ जाता है, तब वह मुखसे कुछ कहे बिना ही हाथ आदिके संकेतसे अपना मनोगत भाव कह देता है / इन्द्र-विरहकी मावी आशंकासे घृताची लम्बा श्वास लेने लगी] // 49 // साधु नः पतनमेवमितः स्यादित्यभण्यत तिलोत्तमयापि | चामरस्य पतनेन कराब्जात्तद्विलोलनवल जनालात् // 50 // साध्विति / तिलोत्तमयापि देण्या तस्य चामरस्य विलोलनेन आन्दोलनेन वलन् वलमानो भुजो बाहुरेव नालो यस्य तस्मात् , 'वलतरात्मनेपदमनित्यं ज्ञापकात्' इत्याह वामनः / चपिङो किरकरणं ज्ञापकम् / कराब्जात् पाणिकमळाचामरस्य पतनेन, अवयवपारवश्यादिति भावः / एवखामरवदेव नोऽस्माकमपि इतः स्वर्गात् पतनमेव साधु स्यादित्यमण्यत / मणितमिवेति पूर्ववदुस्प्रेक्षा भुजनालात् कराब्जा दिति सावयवरूपकेण संसष्टा // 50 // चामर डुलानेसे चल भुज-नालवाले हाथसे चामरके गिर जानेसे 'हमलोगों का यहां (स्वर्ग) से पतन हो जाना ही अच्छा है। ऐसा तिलोत्तमा नामकी अमराने भी कहा। [इन्द्र के भावी विरहकी आशंकासे इन्द्रको चामर डुलाती हुई तिलोत्तमाके हाथसे चिन्ता. बन्य परवशताके कारण चामर गिर पड़ा] // 50 // मेनका मनसि तापमुदीतं यत्पिधित्सुरकरोदवहित्थाम् / तत्स्फुटं निजहृदः पुटपाके पङ्कुलिप्तिमसृजद् बहिरुत्थाम् // 51 / / मेनकेति / मेनका नाम काचिद् देवी मनस्युदीतमुत्पन्न, तापमाधि, पिधिरसुः पिधातुमिग्छुः सती, अवहिस्थामाकारगुप्तिमकरोपिति यत् , तदाकारगोपनमेव, निज. हृदः स्वमनसः, पुटपाके गूढपाके, बहिरुस्थामुस्थितां, वाद्यामित्यर्थः / 'भातश्चोपसर्गे' इति कर्तरि कप्रत्ययः। पङ्कलिप्तिं पडलेप, स्फुटमसृजत् / पुटपाके बाह्यः पकलेपो. ऽन्तः पच्यमानद्रव्यस्येवाकारगोपनमेव बलात् क्रियमाणं गोप्यस्यान्तस्तापस्य ज्याकमभूदित्यर्थः॥५१॥ मेनकाने मनमें उठे हुए (पाठान्तरसे-बढ़े हुए ) सन्तापको बन्द रखने (छिपाने, पक्षान्तरमें-रोकने की इच्छा करती हुई जो भाकारगोपन किया ( भावको छिपाया ), वह अपने हृदयके पुटपाकमें मानो बाहरसे कीचड़को लपेटा। [किसी औषध का पुटपाक 1. 'चलद्-' पाठान्तरम् /