________________ 272 नैषधमहाकाव्यम् / अघमर्षण मन्त्रके सुनने से पाप दूर हो जाते हैं, वैसे ही आपके वचनों को सुनने से वीरों के स्वर्गमें न आनेका कारण जानकर मेरे दुःख दूर हो] // 18 // इत्युदीर्य मघवा विन यधि वर्धयन्नवहितत्वभरेण | चक्षुषां दशशतीमनिमेषां तस्थिवान्मुनिमुखे प्रणिधाय / / 16 // इतीति / मघवा इन्द्रः, इत्युदीयं, अहिलवमरेण एकाप्रतातिशयेन, विनय धि धिनयातिशयं, वर्धयन्ननिमेषां चतुषां दशशतीं यशानां शतानां समाहारः दश. शती सहस्त्रं, 'तदितार्थ-' इत्यारिना समाहारे दिगावकारान्तोत्तरपदत्वात् खियां हिंगोः' इति डीप / एतेन शतमखी व्याख्याता। मुनिमुखे प्रणिधाय तस्थिवान् तस्थौ / लिटः क्वसुरादेशः // 19 // ___ यह (श्लोक 14-18 ) कहकर अधिक सावधानीसे विनय-समृद्धिको बढ़ाते हुए इन्द्र मुनि नारदजीके मुखको निमेषरहित हजार आँखोंसे देखते हुए चुप हो गये। [ अधिक सावधानी तथा देव होनेसे इन्द्र विना पलक गिराते ( एकटक मुनिराजके मुखकी ओर उत्तरकी प्रतीक्षामें देखते ) हुए चुपचाप बैठे रहे / अत्युत्कण्ठित अन्य कोई भी व्यक्ति उत्तर देनेवाले की ओर एक टक देखता हुभा चुपचाप बैठ जाता है ] // 19 // वीक्ष्य तस्य विनये परिपाकं पाकशासनपदं स्पृशतोऽपि / नारदः प्रमदगद्गदयोक्त्या विस्मितः स्मितपुरस्सरमाख्यत् // 20 // वीध्येति / नारदः नाकशासनपदं स्पृशतोऽपीन्द्रस्वे तिष्ठतोऽपि। तस्येन्द्रस्य, विनये परिपाकं प्रकर्ष, वीक्ष्य विस्मितः सन् सविस्मयः सन् , कतरि कः। प्रमद. गद्दयोक्त्या हर्षविस्वरया वाचा स्मितपुरस्सरं स्मितपूर्वमास्यदाचचक्षे / 'अस्यति वचिस्यातिभ्योऽङ' इत्यप्रत्ययः // 20 // हन्द्रासनपर बैठे हुए भी उस इन्द्र के अधिक विनयको देखकर आश्चयित नारदजी हर्षा धिक्य से गद्गद वचन मुस्कुराकर बोले-[ कोई दूसरा व्यक्ति थोड़ी-सी सम्पत्तिको पाकर मी विनयसे रहित हो जाता है, और ये इन्द्र पदपर बैठे हुए भी इतना अधिक विनय कर रहे हैं, यही नारदजीके आश्चर्य एवं हर्षका कारण था / अन्य भी कोई व्यक्ति आश्चर्यचकित तथा हषित होनेसे कोई पात गद्गद होकर ही कहता है ] // 20 // भिक्षिता शतमखी सुकृतं यत्तत्परिश्रमविदः स्वविभूतौ। तत्फले तव परं यदि हेला क्लेशलब्धमधिकादरदं तु // 21 // भिरिति / शतानां मखानां समाहारः शतमखी (दात्री), यत् सुकृतं भिषिता याचिता। मिवेर्नुहादिस्वादप्रधाने कर्मणि कः / तत्फले तस्य सुकृतस्य फले, स्ववि. भूतो निश्चय हेला अवज्ञा अनास्था यदि, 'हेलाऽवज्ञा' इति वैजयन्ती। तत्परिश्रम