________________ 280 नैषधमहाकाव्यम्। देवाङ्गनाओं को नहीं। [अन्य भी कोई व्यक्ति कष्ट उठाकर (युद्ध करनेमें तथा दूर देश जाने में बड़ा का होता है ) एवं प्राणों को देकर बहुत दूरदेश (जैसे स्वर्ग) में जाकर वहां तुच्छ वस्तु ( देवागना) को प्राप्त करने की चाइना छोड़कर जीते जी आनन्दपूर्वक थोड़ी दूर / (भूमिपर स्थित कुण्डिनपुर ) जाकर सर्वोत्तम वस्तु ( दमयन्तीरूप अमूल्य स्त्रीरत्न ) पाने को चाहना करने में अधिक बादर करता है ] // 34 // तेन जाग्रदधृति दिवमागां संख्यसौख्यमनुकर्तुमनु त्वाम् / यन्मृधं क्षितिभृतां न विलोके तन्निमग्नमनसां भुवि लोके // 35 // एवं राज्ञा स्वर्गानागमने हेतमुक्वाथ स्वस्यागमने हेतुमाह-तेनेति / यद्यस्मा. द्भुवि लोके भूलोके तस्यां दमयन्त्यां, निमग्नमनसाम् आसकचेतसां नितिभृतां मृचं युदं न विलोके न पश्यामि / तेन युदालाभेन जाग्रतिः संमूर्च्छदसन्तोषः असन्तुष्टः सन्, सङ्घयसौख्यं युदसुखम् / 'मृधमास्कन्दनं सङ्घयम्' इत्यमरः / अनुः सतुंमनुभवितुं, स्वामनु स्वामुहिश्य, दिवं स्वर्गमागाम् // 35 // __उस दमयन्तीमें आसक्त चित्तवाले राजाओंका युद्ध भूलोकमें मैं नहीं देखता हूँ, उससे बढ़ते हुए असन्तोषवाला ( अथवा-असन्तुष्ट अधैर्ययुक्त, अत एव जागरूक ) मैं युद्धजन्य मुखको प्राप्त करने के लिये तुम्हारे पास स्वर्गमें आया हूँ। [ नारदजी सदा कलहप्रिय है, उनकी यही कामना ही है कि इधर-उधर कर परस्पर में लोगों को लड़ा दें, इसीसे लोकमें किसी झगड़ा लगानेवाले व्यक्तिको देखकर लोग कहते हैं कि-'देखो ये नारदजी आ गये। यहां नारदजी का इन्द्र के पास पहुंचनेका यह आशय है कि-इन्द्र हो कोई उपाय करें, जिससे राजाओंमें युद्ध छिड़ जाय ] // 35 // वेद यद्यपि न कोऽपि भवन्तं हन्त हन्त्रकरुणं विरुणद्धि / पृच्छयसे तदपि येन विवेकप्रोञ्छनाय विषये रससेकः // 36 / / वेदेति / हन्तृष्वकरुणं समूलघातं हन्तारं भवन्तं कोपि न विरुणद्धि न विगृ. हाति / हन्तेति हर्षे वेद यद्यपि एतावस्येव / 'विदो लटो वा' इति विदो णलादेशः / यद्यपीत्यवधारणे, तदपि तथापि पृच्छयसे। भज्ञः पृच्छति न विद्वानत माह-येन कारणेन विषये भोग्ये रससेको रागानुबन्धो जलसेकश्च विवेकस्य विशेषज्ञानस्य चित्राचसापस्य च प्रोन्छनाय प्रमार्जनाय, विषयतृष्णालुप्तविवेकः पृच्छामीत्यर्थः // 36 // __ यद्यपि 'प्रहार करनेवालों में तुम निर्दय हो (प्रहार करनेवालों को निर्दय होकर नष्ट कर देते हो, अतः) तुमसे कोई वैर नहीं करता है, यह मैं जानता हूं; तथापि तुमसे पूछता हूं (कि युद्ध होगा या नहीं। अथवा-युद्धके लिये तुमको उत्साहित करता हूँ), क्योंकि भभिलषित विषयमें अधिक अनुराग ( पक्षान्तर में-जलके द्वारा धोना) ज्ञानामावके लिये