________________ पञ्चमः सर्गः 281 ( पक्षान्तरमें-पादिको धोने के लिये ) होता है, यह आश्चर्य है अर्थात् अत्यन्त अभीष्ट वस्तुमें अधिक स्नेहके कारण शानकी कमी हो जाती है'। [विषयको जानते हुए भी लोग भस्यधिक अनुरागके कारण उसमें अपनी अजानकारी व्यक्त करते हुए उस विषयको अधिक स्पष्ट करना चाहते हैं ] // 36 // एवमुक्तवति देवऋषीन्द्रे द्राग्भेदि मघवाननमुद्रा / उत्तरोत्तरशुभो हि विभूनां कोऽपि मञ्जुलतमः क्रमवादः // 7 // एवमिति / देवऋषीन्द्रे नारदे / 'ऋत्यकः' इति प्रकृतिभावः। एवमुकति सति, मघोनः मानने मुद्रा मौनं मधवाननमुद्रा। 'मघवा बहुलम्' इति विकरूपान्मतुबादेशाभावः। द्राक झटिस्यभेदि स्वयमेव भियते स्म / 'कर्मवत्कर्मणा तुल्य क्रियः' इति कतुः कर्मवद्भावात् 'कर्मकर्तरि लुछ। सङादिकार्थे 'यगारमनेपदधिण. विण्यद्धावाः प्रयोजनम्' इति वचनात् / 'क्रियमाणं तु यत्कर्म स्वयमेव प्रसिध्यति / सुकरैः स्वगुणेयस्मात् कर्मकर्तेति तं विदुः // ' इति // तथाहि, विभूनां प्रभूणां, कोऽपि मम्जुलतमोऽतिहृधः क्रमवादः प्रश्नोत्तरक्रमेणोक्तिः। उत्तरोत्तरशुभः उपर्यपरि सुभगो हि / अर्थान्तरन्यासः॥३७॥ देवर्षिनारदजीके ऐसा (इलो० 21-36 ) कहने पर इन्द्रको मुखमुद्रा ( मौन रहना) शीघ्र भङ्ग हो गयी अर्थात् इन्द्र शीघ्र बोले। उत्तरोत्तर शुभ (अथवा-उत्तर प्रत्युत्तरसे शुम ) बड़े लोगोंका क्रमशः कुछ बोलना अत्यन्त मनोहर होता है / ( अथवा-गड़े लोगों का अत्यन्त मनोहर कुछ भी क्रमसे बोलना उत्तरोत्तर शुम' या उत्तर प्रत्युत्तरसे शुभ होता है। अथवा-बड़े लोगोंका बोलना क्रमशः कुछ अनिर्वचनीय उत्तरोत्तर शुम अतिशय मनोहर होता है / [बड़े लोग जैसा क्रमबद्ध उत्तर प्रत्युत्तररूपसे अत्यन्त मनोहर बातचीत करते हैं, वैसा साधारण व्यक्ति नहीं करता। अथवा-बड़े लोगोंका अतिशय मनोहर क्रमबद्ध भाषण पहले या बादमें शुमकारक होता है, अतः इन्द्र फिर भी बोले ] // 37 // / कानुजे मम निजे दनुजारौ जाप्रति स्वशरणे रणचर्चा / यद्भुजाङ्कमुपधाय जयाद शर्मणा स्वपिमि वीतविशङ्कः // 38 // कानुन इति / निजे स्वीये अनुजे दनुजारौ उपेन्द्रे स्वशरणे स्वरक्षके स्वगृहे वा 'शरणं गृहरचित्रोः' इत्यमरः / जाग्रति जागरूके सति / मम रणचर्चा रणचिन्ता का ? न कापीत्यर्थः / जयोऽकृश्चिह्न यस्य तं तद्भुजावं, यस्यानुजस्थ भुजोत्सनमुप. धायोपधानीकृत्य वीतविशटो निरातङ्कः सन् शर्मणा सुखेन स्वपिमि शये। यथा रक्षिजने जाग्रति राजा शय्यागारे सुखेन भुजमुपधाय स्वपिति तददिति भावः / इह निरातङ्कवृत्तिस्सुप्तिः अस्वप्नत्वाइमराणाम् // 38 // अपने ( मेरे ) परमें (अथवा-मेरे रखक, अथवा-आत्मीयजनों अर्थात् देवों के रक्षक)