________________ पञ्चमः सर्गः 267 [अन्तः तथा अगाध शब्द भवसागरके, अनादि शब्द वियत् के और शर्ममरचार शब्द इन्द्रभवन के भी विशेषण हो सकते हैं / नारदजी इन्द्रभवनमें पहुंच गये ] // 8 // अर्चनाभिरुचितोच्चतराभिश्चारु तं सदकृतातिथिमिन्द्रः। यावदह करणं किल साधोः प्रत्यवायधुतये न गुणाय // 6 // अर्चनाभिरिति / इन्द्रः, तमतिथिं मुनिम्, उचिताद्विहितात् , उत्तराभिरधि कामिः, अर्चनाभिः पूजाभिः, चारु यथा तथासदकृत सस्कृतवान्, आइतवानित्यर्थः। 'आदरानादरयोः सहसती' इति निपातनात् प्राक प्रयोगः / अधिकाचरणे हेतुमाहयावदह याववतम् 'यावइवधारणे' इत्यव्ययीभावः। 'यावरहस्य करणम्' इति षष्ठीतत्पुरुषः / लाबोः श्रद्वालोः प्रत्यवायधुक्ये अकरदोषनिवार गाय, गुगायोस्क र्षाय न किल खलु / सामान्येन विशेषसमर्थन रूपोऽर्थान्तरन्यासः // 9 // इन्द्रने अतिथि उस नारदजी का उचितसे अधिकतर पूजाओं द्वारा सत्कार किया / उचित पूजा करना सज्जनके प्रत्यवाय ( नहीं पूजा करने से होनेवाले दोष ) को शान्ति के लिये होता है, ( पूजा करने वाले के ) गुणके लिये नहीं। अथवा-तज्जनको उचित पूजा करना पूजनकर्ता के प्रत्यवायशान्ति के लिये होता है, गुणके लिये नहीं। अथवा-सज्जन के गुण के लिये नहीं होता / [ देवराज इन्द्रने श्रेष्ठतम अतिथिरूप में उपस्थित नारदजीका आतिथ्य बड़ी ही श्रद्धा एवं मक्तिके साथ किया ] // 9 // नामधेयसमतासखमद्रेरद्रिभिन्मुनिमथाद्रियत द्राक् / पर्वताऽपि लभतां कथमचों न द्विजः स विबुधाधिपलम्भो ? // 10 // नामधेयेति / अथ नारदसस्कारानन्तरम्, अदिर्शिदन्द्रः, अद्रेः पर्वतस्य, नाम: धेयतमतया नामसामान्येन सखायं तत्सखं मुनि पर्वताख्यं, द्राक द्रुतमाद्रियत सस्कृतवान् / स्वतः पर्वतारेः कथं हरस्कारमलभतेत्यत्राह--पर्वतोऽपि सद्विजो विबु. धाधिपं देवेन्द्र पण्डितोत्तमं च, लभते प्राप्नोतीति तल्लम्मी / विबुधः पण्डिते देवे' इति विधः। स मुनिः, कथमचर्चा पूजो, न लभता ? लमतामेवेत्यर्थः। हिजोऽभ्या: गतो महतः प्रतिपक्षादपि विकिनः पूजां लभत इति भावः / / 10 // पर्वताहा भेदन करनेवाले इन्द्रने पर्वत इस नाममात्रसे ( कर्मसे नहीं ) पर्वत मुनिका शीघ्र सरकार किया। विबुधषभु ( देवताओं के स्वामी, पक्षान्तर में विशिष्ट विद्वानों में श्रे) को प्राप्त करनेवाला द्विज (ब्राह्मण ) पर्वत मी पूजाको क्यों नहीं प्राप्त करे अर्थात् अवश्य प्राप्त करे / [ यद्यपि इन्द्र पर्वतोंका भेदन करने वाले हैं किन्तु देवराज या विशिष्ट विद्वानों में श्रेष्ठ होनेसे अपने यहां आये हुए पर्वत (शत्रु) का मी क्यों सत्कार न करें ? उसमें भी यह द्विज है, तथा केवल नाम से ही पर्वत है वास्तविक पर्वत नहीं, अत एव अवश्य सस्कार पाने के योग्य है / अथवा-पर्वतरूप (पत्थरके समान) अर्थात् महामूर्ख भी ब्राह्मणको विद्वच्छ्रेष्ठ