________________ चतुर्थः सर्गः 256 चाहिये)। [ प्रधान मन्त्री तथा राबवैद्यको राजकुमारीको मूर्छा सुनकर अन्तःपुरमें पहुँचना उचित ही है ] // 116 // ताभ्यामभूयुगपदप्यभिधीयमानं भेदव्ययाकृति मिथःप्रतिघातमेव / श्रोत्रे तु तस्य पपतु पतेर्न किञ्चिद्भम्यामनिष्टशतशङ्कितयाकुलस्य // ताभ्यामिति / ताभ्यां मन्त्रिभिषग्भ्यां, भेदण्ययो नामाभेदः स एवाकृतिर्यस्य तद् भेदण्ययाकृति, अभिनाकारमेकरूपं यथा तथा, युगपदेकदा, अभिधीयमानं नलदादिवाक्यमिति शेषः / मिथोऽन्योन्यं प्रतिघातो विरोधो यस्य तन्मिथःप्रतिषातं मिथोमिनमेवाभूत् / अमिधानयोगपद्यादेकशब्दाचाभिनायकवाक्यवत् प्रतीयमा. नमपि तद् भिन्नार्थ वाक्यद्वयमेवासीदित्यर्थः / राज्ञस्तु न तत्र दृष्टिरित्याह-भैम्यां विषये अनिष्टशतशक्षितया अनिष्टानेकशावत्वेन आकुलस्य विह्वलचित्तस्य, 'प्रेम पश्यति भयान्यपदेऽपि' इति न्यायादिति भावः / तस्य नृपतेः भीमस्य श्रोत्रे तु किचिन्न पपतुः त किश्चिदर्थ जगृहतुः / व्याकुलान्तःकरणतया तद्वाक्ये नातीव कर्ण दत्तवानित्यर्थः // 117 // उन दोनों (प्रधान मन्त्री तथा राजवैद्य) के द्वारा एक साथ कहा गया भेदरहित मी वह वचन परस्परमें प्रतिघातक ( एक दूसरे का बाधक ) ही हुआ, इस कारण दमयन्ती के विषय में सैकड़ों अनिष्टों की शङ्का होने से राजा के दोनों कान कुछ भी (किसी एक के वचन को मी) नहीं पान किये अर्थात नहीं सुने / [एक साथ दो व्यक्तियों के कहे गये वचनों को कोई भी घबड़ाया हुमा व्यक्ति नहीं सुन सकता, अतः प्रधान मन्त्री तथा राज. वैद्य के एक साथ कहे गये भेदरहित वचनको भी परस्पर बाधक (मीम राबाके द्वारा एक दूसरे की बातको नहीं सुनने में कारण ) होना स्वाभाविक ही है / अतः वचनको न सुन सकनेसे दमयन्तीके नाना प्रकारको अनिष्ट शङ्काओंसे भीम राजा धबड़ा गये ] // 117 // द्रुतविगमितविप्रयोगचिह्नामपि तनयां नृपतिः पदप्रणम्राम् / अकलयदसमाशुगाधिमग्नां झटिति पराशयवेदिनो हि विज्ञाः // द्रुतेति / नृपतिः द्रुतविगमितविप्रयोगविहां दागपसारितशिशिरोपचारचिह्नामपि, पदे प्रणम्रो पादपतिताम् 'उपसर्गादसमासेऽपि णोपदेशस्य' इति णत्वम् / तनयामसमाशुगाधिमग्नां मदनव्यथामग्नाम् अकलयनिश्चिकाय। तथाहि विज्ञाः प्रवीणाः / 'प्रवीणे निपुणाभिज्ञविज्ञनिष्णातशिक्षिताः' इत्यमरः / झटिस्यविलम्बेन पराशयबेदिनो हि, प्रकाशकलिङ्गमन्तरेण आकारमात्रेण परेङ्गितं निश्चिन्वन्तीत्यर्थः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 118 // राजा ( मीम ) ने विरहचिह्न से रहित चन्दनलेप, कमल, मृणाल आदि नहीं धारण 1. 'भेदण्यपाकृति' इति पाठान्तरम् /