________________ 262 नैषधमहाकाव्यम् / इति यत् / तत्र तस्यां पुध्यां, सही अनुरूपा या सावना लालनोक्तिः स्यात् , सा चाशीकपटाइयितमाप्नुहीत्याशीर्वादण्याजादवादीति च यत्, तरसर्व मरवा. लोग्य, भालियर्गः मनः स्वचित्तम् भानन्दमन्दायोः अब्धिमतनोत् / छज्जानन्द. सागरीचकारेत्यर्थः / स्वेष्टसिद्धेरानन्दः स्वरहस्वप्रकाशनाधज्जा // 122 // इस प्रकार (श्लो० 119-121 ) कहते हुए राजा भीमने कन्या दमयन्तीसे लज्जाविषयक बातको ( पाठभेदसे-सलज्ज दमयन्तीसे पीडाविषयक बातको) तथा कामदेवने शरीरके पाण्डुत्व और सन्ताप मादिसे को मूच्र्छा उत्पन्न कर दिया था उसको जो नहीं पूछा, और भाशीर्वाद के बहानेसे (श्लो० 119 में ) दमयन्तीसे योग्य वर पानेको तथा सखियोंसे उसका योग्य उपचार करनेको कहकर जो सान्त्वना दी, उसे जानकर सखियोंने मनको आनन्द तथा लज्जाका समुद्र बना दिया। [राजाने पिता होने के नाते कामपीडित कन्यासे लज्जाजनक पाण्डुतापादिजन्य मोह भादिकी बात नहीं पूछी और आशीवाद देकर तथा सखियोंसे नचित उपचार करने के लिये कहकर कन्या तथा उसकी सखियोंको पूर्ण सान्त्वना दे दी, यह योग्य एवं चतुर पिताके लिये उचित ही था। सखियां भी 'पिताजीने सखी दमयन्तीका, स्वयंवर शीघ्र ही करने का निश्चय कर किया' यह जानकार हर्षित तथा 'कामपीडाविषयक बात पिताजीने मालूम कर लिया' यह जानकर एक साथ ही मनमें मस्यन्त लज्जित भी हुई / अन्य किसी भी पिता एवं कन्याके लिये ऐसा ही करना स्वामा. विक है ] // 122 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामझदेवी च यम् / तुर्यः स्थैर्यविचारणप्रकरणभ्रातर्ययं तन्महा... काव्येऽत्र व्यगलनलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 12 // श्रीहर्षमिति / श्रीहर्षमित्यादि सुगमम् / तुर्यचतुर्थः। 'चतुरश्छयतावाधार लोपश्च' इति साधुः / स्थैर्य विचारणं नाम स्वप्रणीतप्रकरणं तद्भातरि तासमानः कर्तृक इत्यर्थः // 123 // "इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु'समाख्याने चतुर्यः सगं समाप्तः // 4 // ___ कवीश्वरसमूहके मुकुटाबहार में जड़े गये हीरेके समान पिता 'श्रीहीर' तथा माता मामल्ल देवीने इन्द्रिय-समूहको जीतनेवाले जिस 'मीहर्ष'नामक पुत्रको उत्पन्न किया, उसके रचित 'स्थैर्यविचारण' (क्षण-मनके खण्डनसे स्थिरताका विचारणसूचक ग्रन्य. विशेष ) नामक प्रकरणका सहोदर ( समान, पक्षान्तरमें-दोनों ग्रन्थों का एक निर्माणकर्ता होनेसे सहज माई ), सुन्दर, नलके चरित अर्थात् 'नैषधचरित' नामक महाकाव्यमें स्वमा. वतः निर्मक ( दोषहीन ) चतुर्थ सर्ग समाप्त हुभा / / 123 // यह 'मणिप्रभा टीकामें 'नैषधचरित'का चतुर्थ सर्ग समाप्त हुभा // 4 //