________________ चतुर्थः सर्गः 255 स्फुटतीति / हे भैमि ! मदनोष्मणा कामज्वरेण, हारमणौ हृदयालझाररस्ने स्फुरति विदलति सति, अद्य ते तव हृदयं वक्षोऽपि अलंकृतं न भवतीत्यनलड्कृतम् अपरिष्कृतं जातम् / अथ हृदयमन्तरङ्गमध्यनलं नलरहितं कृतमित्यर्थान्तरं मरवो. तरमाह-हे सखि ! स प्रियतमः, मम हृद्यपि व्यवधापितो यदि दूरीकृतश्चेत् / दधातेय॑न्तास्कर्मणि क्तः / 'अर्तिही' इत्यादिना पुगागमः / तदा हतास्मि / वक्रो. किरलारः / लक्षणमुकम् // 109 // सखी-कामज्वर ( कामजन्य विरह सन्ताप ) से हारमणिके फूटते रहनेसे आज मैंने तुम्हारे हृदयको भी अनलकृत ( भूषित नहीं, पक्षान्तरमें-नारहित ) किया है [ पहले तुम्हारे मुख आदि तो अलङ्कारशून्य थे ही, किन्तु माग हृदयको भी मलङ्कार से युक्त नहीं किया यह 'अपि' शब्दसे ध्वनित होता हैं मुक्ताका अग्नि तापमें पड़कर फूटना स्वाभाविक है / दमयन्ती-हे सखि ! यदि हृदयसे भी उस प्रियतम ( नल ) को व्यवहित (पृथक ) कर दिया तब तो हाय ! मैं मारी गयो / [पहले प्रियतम का दर्शन पाहरमें न होने पर भी 'हृदयमें वे हैं, तब कभी न कभी वे अवश्य ही मिलेंगे' यह मानकर हो मैं संतोष करती थी, किन्तु माज तुमने जब हृदयसे भी उस प्रियतम नलको अलग कर दिया, अतः मैं मारी गयी। [ पहले सखीने तो 'न+अलकृत-अनलकृत अर्थात् मण्डनरहित' अर्थ मानकर 'अनलकृत' शब्दको कहा, किन्तु दमयन्तीने 'म+नलकृत-अनलकृत अर्थात नसशून्य किया' यह अर्थ 'अनलकृत' शब्दको मानकर घबड़ाकर उक्त उत्तर दिया] // 109 // इदमुदीर्य तदैव मुमूर्छ सा मनसि मूछितमन्मथपावका / क सहतामवलम्बलवच्छिदामनुपपत्तिमतीमपि' दुःखिता / / 110 // इदमिति / सा भैमी, इदं पूर्वोक्तं 'सखि ! हतास्मीति वाक्पम् उदीर्य उच्चार्य, तदैव मनसि मूछितमन्मथपावका प्रवृद्धकामानला सती, मुमूर्छ मुमोह 'मूर्षा मोहसमुच्छ्राययोरित्ययेऽपि धातोः स्मरणात् / तथाहि दुःखिता सातदुःखा, दुःखिनी सा। अनुपपत्तिमतीमनलकृतमिति श्लेषशब्दभ्रषणजन्यभ्रान्तिविषय. स्वादनुपपन्नाम पीत्यर्थः। अवलम्बलवस्य हृदयसङ्गतिमात्रलक्षणस्य प्राणाधारलेशस्यापिलिवामुच्छेदकं व सहता, कथं सहेतेत्यर्थः / दुःखोहिग्नस्य भ्रान्तमभ्रान्तं वानि. ष्टसंवेदनमतिदुःसहमतो युसमस्या मूर्छनमिति भावः / अर्थान्तरन्यासोऽलकारः / ऐसा कहकर मनमें बढ़ी हुई कामाग्निवाली वह दमयन्ती उस समय मूच्छित हो गई। अत्यन्त दुखिया ( वह दमयन्ती) असत्य मी अर्थात् श्लेषोक सखी-वचनके भिन्नार्थक होनेसे हृश्य-गत नलामावरूप घटनारहित भी अवलम्ब ( हृदयस्थित प्रिय कभी न कभी 1. '-मतिदुःखिता' इति पाठान्तरम् /