________________ चतुर्थः सर्गः 253 चण्डमरीचिः शीतांशुरुदास्युदेति, न चण्डायरित्यर्थः / आतपैरेव मुर्मरैस्तुपानलैः। 'मुर्मुरस्तु तुषानल' इति वैजयन्ती / स्फुटं प्रत्यक्षं यथा तथा, ज्वलयति दहति / हे सखि ! अनुभवं प्रत्यक्षं वचसा भागमेन लुम्पसि बाधसे / तदयुक्तं प्रावप्लवन. वाक्यवत् , प्रत्यक्षेणैवास्य बाधादित्यर्थः / अत्राचण्डको चण्डकरमान्या भ्रान्ति. मदलङ्कारः // 105 // सखी--धैर्य ग्रहणं करो, निष्कारण भयको छोड़ो; क्योंकि यह अचण्डदीधिति (शीतरश्मि ) अर्थात चन्द्रमा उदय हो रहा है / [ चन्द्रमामें सूर्यबुद्धि करनेसे जो निष्कारण मय कर रही हो, उसे छोड धैर्य-धारण करो] / दमयन्ती-हे सखि ! यह धूपरूपी मुर्मुरों ( कंडे के निर्धूम अंगारों) से मुझे प्रत्यक्ष हो जहा रहा है, मेरे इस प्रत्यक्ष अनुभवको (शास्त्र-) वचनसे लुप्त करती रही हो। [बातों की अपेक्षा अनुभव ही सत्य एवं प्रामाणिक माना गया है / अतः मेरे प्रत्यक्ष अनुभव से सिद्ध है कि यह चण्डरश्मि ( सूर्य ) ही है ] // 105 // अयि ! शपे हृदयाय तवैव यद्यदि विधोर्न रुचेरसि गोचरः। रुचिफलं सखि ! दृश्यत एव यज्ज्वलयति त्वचमुझलयत्यसून् // 106 // ___ यदुकमयमघण्डमरीचिरिति सद्विवासयति-अयोति / अयि (मुग्धे) भैमि ! विश्वसिहीति शेषः / वियोश्चन्द्रस्य रचेस्तेजसो गोचरो विषयो नासि यदि, वद. असगीदं तेजश्नान्द्रं न चेदित्यर्थः / तत्तर्हि तवैव हृदयाय शपे। स्वजीविताय द्या. मीत्यर्थः / 'श्लाघह्वा' इत्यादिना सम्प्रदानस्वाचतुर्थी / तर्हि, सखि ! बचिफल्मेव तेजोमात्रकार्यमेव रश्यते / न तु चन्द्रकार्यम् / मद्भाग्यविपर्ययेणाभिभवनिवृत्तेरिति भावः / कुतः, यद्यस्मारवचं ज्वलयति दहति / असून् प्राणान् उबलयति उन्मूल. यति / सर्व तेजः उष्णस्वाहाहकमेव, अमिभवात्त विपर्यय इति पदार्थतत्ववादिनः॥ सखी-अयि दमयन्ती ! मैं तुम्हारे ही हृदय की सौगन्ध खाती हूँ जो तुम चन्द्रमा की रुचि (चांदनी ) में न हो। दमयन्ती-हे सखि ! रुचिका फल (कार्य) तो दिखलाई ही दे रहा है कि वह ( मेरे शरीरके ) चमड़ेको जला (सन्तप्त कर) रही है और प्राणोंको ऊपर उठा अर्थात उबाल (व्याकुल कर ) रही है। [दमयन्तीको विश्वास दिलाने के लिये उसकी सखीने दमयन्तीका हृदय छूकर शपथ किया कि तुम चाँदनी में ही हो, इस उक्तिमें 'रुचि' शब्दका अर्थ प्रकाश लेना चाहिये / किन्तु दमयन्तीने सखोकी शपथ-पूर्वक कही गयी बातको स्वीकार करती हुई 'रुचि' शब्दका अर्थ दाहक तेच मानकर उसके सर्वथा प्रतिकूल उत्तर दिया ] // 106 // विधुविरोधितिथेरभिधायिनीमयि ! न किं पुनरिच्छसि कोकिलाम् / सखि ! किमर्थगवेषणया ? गिरं किरति सेयमनर्थमयीं मयि // 107 //