________________ 252 नैषधमहाकाव्यम् / हितगिरं न शृणोषि किमाश्रवे ! प्रसभमप्यव जीवितमात्मनः / सखि ! हिता यदि मे भवसीहशी मदरिमिच्छसि या मम जीवितम् / / हितगिरमिति / आशृणोति वाक्यमिति आश्रवा। पचायच / हे आवे ! वाक्यकारिणि !'वचने स्थित आश्रव' इत्यमरः। प्रसभं बलादप्यात्मनो जीवितं प्राणमय रस / 'एति जीवन्तमानन्दो नरं वर्षशतादपि' इति न्यायादिति भावः। हितगिरमाप्तवाक्यं किं न शृणोषि? हे सखि ! यावं मदरिं मम जीवितमिग्छ. स्यपेक्षसे / इशीत्थं शत्रुवृद्धिमीहमानापि, मे हिता भवसि यदि / न तु भवसि / अतो न शृणोमीत्यर्थः / / 103 // सखी-सर्वदा मेरी बातको सुनने तथा माननेवाली हे दमयन्ती ! मेरी हितकारी बात क्यों नहीं सुनती 1 बलपूर्वक ( कष्ट सहकर ) भी अपने जीवन की रक्षा करो। दमयन्ती-हे सखि ! तुम मेरी ऐसी हितैषिणी होती हो, जो ( तुम ) मेरे शत्रुरूप बीवनको चाहती हो ( भतः तुम मेरी हितैषिणी सखी नहीं हो अर्थात सखी होकर तुम्हें ऐसा चाहना शोभा नहीं देता) // 103 / / अमृतदीधितिरेष विदर्भजे ! भजसि तापममुष्य किमंशुभिः / / यदि भवन्ति मृताः सखि ! चन्द्रिकाः शशभृतः क तदा परितप्यते // अमृतदीधितिरिति / हे विदर्भजे दमयन्ति ! एष इति पुरोवर्तिनो हस्तेन नि. देशः। अमृतदीधितिः सुधांशुः / अमुष्य सुषांशोरंशुभिः किमिति तापं भजसि ? अत्रामृतशब्दस्यार्थान्तराभयेणोत्तरमाह-यदीति / हे सखि ! शशभृतभन्द्रिकाः मृताः भवन्ति यदि, तदा क परितप्यते ? न कापीत्यर्थः। अस्यामृतदीधितिस्वादे. वेदं दुःखं, मृतदीधितिश्चेत् सर्वारिष्टशान्तिः स्यादिति भावः / अत्र अमृतेति सुधा विवक्षया प्रयुक्तस्य मृतेतरार्थवेन योजनाद्वक्रोक्तिरलकारः। 'अन्यथोक्तस्य वाक्य. स्या काक्वा श्लेषेण वा भवेत् / अन्यथा योजनं यत्र सा वक्रोकिनिंगयते // इति // सखी-हे विदर्भकुमारी दमयन्ती ! यह अमृतकिरण (सुधारश्मि अर्थात् चन्द्रमा) है, इसके किरणोंसे क्यों सन्तप्त होती हो ? दमयन्ती-हे सखि ! यदि शशाङ्क ( चन्द्रमा) की किरणें मृत (नष्ट) हो जाती अर्थात् नहीं रहती, तब कहां सन्ताप होता ? अर्थात् चन्द्रमाके किरणों के अमृत (मरणरहित = जीवित अर्थात सर्वत्र फैली हुई ) होनेसे ही सन्ताप हो रहा है, इसके अमावमें कदापि सन्ताप नहीं होता / / 104 // ब्रज धृति त्यज भीतिमहेतुकामयमचण्डमरीचिरुदश्चति / ज्वलयति स्फुटमातपमुर्मुरैरनुभवं वचसा सखि ! लुम्पसि // 10 // बजेति / मुग्धे !), धृति मन धैर्य भन / अहेतुका भीति स्यज। अयम