________________ चतुर्थः सर्गः 241 अहहेत्यद्भुते / किनुत साधनान्तरै, 'पुष्पैरपि न योग्य किं पुनर्निशतैः शरै'रिति नीत्या कुसुमान्यपि मोक्तुं बिभेषीति भावः // 8 // हे अनङ्ग ! पुष्पों (बाणभूत पुष्पों) से भी त्रिनेत्र महादेवजी पर प्रहार ('विगृह्णता' पाठमें विरोध ) करते हुए जो फल (मात्मनाश) पाया, उसीसे समय होकर नीति, पुष्पों के द्वारा भी ( तीक्ष्ण बाण आदि शत्रोंका तो कहना ही क्या ?) विरोधको नहीं चाहती ( 'पुष्पोंसे भी किसीको मारना श्रेयस्कर नहीं' यह नीति श्रेष्ठ मानी जाती है)। अथवा-हे 'भङ्ग हीन' (जब शरीर ही नहीं तो शरीराभयो शान कहां रहेगा! अतः हे मूर्ख कामदेव !) तुम ऐसे मूर्ख हो कि पुष्पास्त्र होकर भी विषम-दृष्टि ( असमान नेत्रवाले अर्थात् मृत्युञ्जय ) के साथ मी युद्ध करने गये, यह भाश्चर्य है / अथवा-विषम अर्थात् भतितीक्ष्ण स्वभाववाले नेत्र ( नायक ) के साथ विरोध किया यह तुम्हारी बड़ी मुर्खता है ] // 81 // अपि धयनितरामरवत्सुधां त्रिनयात्कथमापिथ सां दशाम् ? | भण रतेरधरस्य रसादरादमृतमात्तघृणः खलु नापिबः ? // 2 // अपीति / हे स्मर! इतरामरवद् देवतान्तरवत् , सुधा धयन् पिषमापि, धेटः शत प्रत्ययः / त्रिनयनादीवरात् , कथं तो दशां मरणावस्थाम, आपिथ प्राप्तोऽभूः ? आप्नोलिटि थलि क्रयादिनियमादिदागमः / मण वद / अथवा, रतेदेंग्याः, अधर. स्योष्ठस्य, रसे स्वादे, आदरावास्थावशात् आत्तघृणः प्राप्तामृतजुगुप्सः सन् / 'घृणा जुगुप्साकृपयोः' इति वैजयन्ती। अमृतं नापिवः खलु / अमृतपाने कथमन्येवमरेषु स्वमेको मृत इति भावः // 82 // अन्य (इन्द्र आदि ) देवताओं के समान अमृतको पीते हुए भी तुमने शिवजीसे उस (भात्मदाहरूप ) दशाको क्यों प'या ? अथवा रतिके अधरके रस में अत्यन्त आदर (मास. क्ति) होनेसे ( अमृतके प्रति ) घृणाकर अर्थात अमृतको प्रियाके अधररसकी अपेक्षा तुन्छ समझकर ( तुमने ) अमृत को नहीं पिया क्या ? कहो / [ यदि तुम भी इन्द्र मादि अन्य देवताओं के समान अमृतका पान करते तो शिवजी तुम्हें नहीं जला सकते, अत एव प्रियाके अधररसके लम्पट तुमने अमृत का त्यागकर महामूर्खता की यह आश्चर्य है ] // 82 // भुवनमोहनजेन किमेनसा तव परेत ! बभूव पिशाचता ? | यदधुना विरहाधिमलीमसामभिभवन् भ्रमसि स्मर ! मद्विधात् / / भुवनेति / परेत प्रेत ! तव भुवनानां मोहनमचेतनीकरणं तज्जेनैनसा पापेन पिशाचता बभूव किम् ? कुतः स्मर ! यद्यस्मादधुना विरहाधिना वियोगव्यथया मलीमसां मलिना, मद्विधां माहशीमबलामभिभवन् पीडयन् भ्रमसि / पापिष्ठाः किल पिशाचतांगता: दुर्बलस्त्रीबालादीन् पीडयन्ति, स्वच ताहकोऽपि पिशाच इस्युरप्रेक्षा। हे प्रेत ! हे कामदेव ! संसार ( में स्थित प्राणियों ) को मोहित करनेसे उत्पन्न पापसे तुम पिशाच हो गये हो क्या ? जो इस समय (मरनेके बाद प्रेत बनकर ) विरह-पीडासे