________________ 246 नैषधमहाकाव्यम् / तथा चोक्तरीत्या, प्रत्येकमेकैकदानाम्मिलित्वा, षड, भवते तुभ्यं ददाति / तैः षडभिः, कुसुमैरेक धनुरिव, एकेनेति शेषः / पन्चेषूनिव, पञ्चभिरिति शेषः / भवान् कुरुते / अहो ! अवमानेऽपि निर्लजस्य ते परहिंसाम्यसनमिति भावः // 92 // एक साथ नन्दन ( स्वर्गके उपवन को समृद्धिशाली बनानेवाले हेमन्त आदि छः ऋतु कृपासे ( तुम्हारे गौरवके कारण, आदर या प्रेमसे नहीं ) अपने अपने एक एक पुष्पको तुम्हें देते हैं, उनसे तुम विभाग कर के एक पुष्पसे धनुष और शेष पाँच पुष्पोंसे पांच बाणोंको समान बनाते हो / [ नन्दन वनमें सब ऋतु पर्याय-क्रमका त्यागकर एक साथ उसे फूल आदिसे हरा-भरा बनाते हुए सब देवताओंको आदरपूर्वक असंख्य पुष्प देते हैं, किन्तु तुम्हारा कोई गौरव न मानकर कृपाकर केवळ 1-1 पुष्प देते हैं, इन्हें भी तुम अपने उपमोगमें न लाकर व्याधके समान दूसरों को पीडित करने के लिये एक पुष्पसे धनुष तथा शेष पांच पुष्पोंसे वाण बनाते से, अतः तुम बहुत बड़े नीच हो / अथवा-जिस प्रकार लोग मिक्षुकके ऊपर कृपाकर उसे एक-एक पदार्थ अलग-अलग देते हैं और वह मिक्षुक उन्हें दिमक्तकर एकत्रितकर अपनी आवश्यकताके अनुसार इतनेसे अमुक कार्य करूंगा और इतनेसे अमुक कार्य, इत्यादि मनोरय करता है, वैसे ही ऋतुओं के दिये गये कुल केवल 6 पुष्पों में से विभागकर तुम काम चलाते हो; अतएव देवता हाकर अपमानित होते हुए भी तुम्हारी वृत्ति व्याध या भिक्षुकके समान अत्यन्त निन्दनीय है ] // 92 // यदतनुस्त्वमिदं जगते हितं क स मुनिस्तव यः सहते क्षतीः / विशिखमाश्रवणं परिपूर्य चेदविचलभुजमुज्झितुमीशिषे / / 63 / / यदिति / हे मार ! स्वमतनुरशरीरीति यत्तविदमतनुस्वं जगते हितं 'हितयोगे च' इति चतुर्थी वक्तग्या। तथा हि, विशिखं बाणमविचलद्भुजमकम्पहस्तं यथा तथा आश्रवणं परिपूर्याकर्णमाकृष्य उज्झितुं मोक्तुमीशिषे शक्नोषि चेयस्तव क्षतीः प्रहारान् सहते, स मुनिः क्व, न क्वापीत्यर्थः / अनङ्गरवेऽप्येवं जगद्रोहिणस्तव घानु कान्तरवत् कायव्यापारे जगति जितेन्द्रियकथै वास्तमियादिस्यनजत्वमेव जगद्धित. मित्यर्थः // 13 // बो तुम अनङ्ग ( शरीररहित ) हो, यह संसार के लिये हितकारक है / (अन्यथा शरीर. युक्त होकर ) यदि तुम कानतक बाणों को खींचकर तथा हाथ को स्थिर रखते हुए बाण छोड़ना चाहते तो वह मुनि कहां है ? नो तुन्हारे बहारों को सह लेता ? [यदि तुम सशरीर होते तो संसार में कोई मुनि भी तुम्हारे बाणप्रहारको सहन नहीं कर सकता, तब हमलोगों को कौन गणना है ? अतः महादेवजीने तुम्हें जलाकर संसारका बड़ा उपकार किया है]॥९॥ सह तया स्मर ! भस्म झडित्यभूः पशुपति प्रति यामिषुमग्रहीः / ध्रुवमभूदधुना वितनोः शरस्तव पिकस्वर एव स पञ्चमः / / 64 // सहेति / हे स्मर ! पशुपति प्रतियामिषुमग्रहीस्तया सह झाडिति सहसामस्माभूः / 1. 'झटिस्यभूः' इति पाठान्तरम् /