________________ 244 नैषधमहाकाव्यम् / बाणको ही कोमल पुोका बनाया और इतना करनेपर भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ, अतः उन्हें ( कामके वाणभूत पुष्पोंको ) मीतरमें पुष्परस (पक्षा०-जल) से मिंगो दिया। भीतरमें मिंगायी वस्तुमें ऊपर-ऊपर से मिंगायी वस्तुकी अपेक्षा दाहक शक्तिका बहुत ही कम हो जाना लोकानुभवसिद्ध है ] // 87 // विधिरनङ्गमभेद्यमवेक्ष्य ते जनमनः खलु लक्ष्यमकल्पयत् / अपि स वज्रमदास्यत चेत्तदा त्वदिषुभिर्व्यदलिष्यदसावपि / / 8 / / विधिरिति / विधिब्रह्मा अनङ्गमनवयम् / 'भङ्गं प्रतीकोऽवयवः' इत्यमरः / अत एवाभेद्यमवेचय, निरवयवद्रग्यत्वादविनाश्यं निश्चित्य, जनमना, ते तव, लषयमा कक्षपदिश्युत्प्रेक्षा।सावयवल एयदामपते, स विधिर्वज्रमदास्यत चेद्दद्याधादि, तदा स्वदिषुभिरती वज्रोऽपि ग्यदलिष्यद्विशीर्णो भवेत् / मतो युक्तकारी स्रष्टेति भावः॥ ब्रह्माने अखण्ड (परमाणुरूप होनेसे फिर खण्डित नहीं होनेवाले अतएव ) अभेद्य, मनुष्य के मनको देखकर ( उसे ही ) तुम्हारा लक्ष्य कल्पित किया। यदि वह ब्रह्मा वज्रको मी ( तुम्हारा लक्ष्य बनाने के लिये ) देता तो वह ( अत्यन्त कठिन वज्र ) भी चूर्ण हो जाता / [जीवके मनका प्रमाण परमाणुके बराबर बतलाया गया है, उसका कोई खण्ड न हो सकनेसे वह अभेद्य-नहीं तोड़ने योग्य, माना गया है। ब्रह्माने बहुत विचारकर तुम्हारे लक्ष्यका निर्णय किया है, अन्यथा तुम ऐसे महाक्रूर हो कि दूसरा कठिनसे कठिन भी कोई बड़े भाकारका पदार्थ लक्ष्य रहता तो उसे भी चकनाचूर कर देते ] // 88 // अपि विधिः कुसुमानि तवाशुगान् स्मर ! विधाय न निवृतिमाप्तवान् / अदित पञ्च हि ते स नियम्य तान तदपि तेबत जजरितं जगत ||1|| __अपीति / हे स्मर ! विधिः कुसुमान्येव तवाशुगान्विधायापि, निर्वृति कृतकृ. स्योऽस्मीति परितोषं नाप्तवानिरयुस्प्रेक्षा / कुतः, हि यस्मात् सोऽनिवृतो विधिस्तान् कुसुमान्याशुगानपि, नियम्य इपन्त एवेति नियमं कृत्वा / ते तब, पञ्चैवादित दत्तवान् तदपि तथापि तैः पञ्चभिरेव जगत् मर्जरितं अजरीकृतम् / बतेति खेरे। विश्वनियन्ताप्येवं विफल यस्ना, कोऽन्योऽस्ति नियन्तेति भावः // 89 // हे स्मर ! ब्रह्मा तुम्हारे पाणोंको पुष्पमय बनाकर भी निश्चिन्त नहीं हुए, अतएव उन्होंने नियमितकर केवल पांच ही बाण दिये. किन्तु खेद है कि उन (रसप्ते अन्तःसिक्त पुष्पमय पांच बाणों ) से ही संसार नजरित हो रहा है / [ तुम इतने कर हो कि ब्रह्माके इतने ( श्लो० 86-89 ) प्रयत्नको भी असफल कर रहे हो, हा खेद ! ] // 89 // उपहरन्ति न कस्य सुपर्वणः सुमनसः कति पञ्च सुरद्रुमाः ? | तव तु हीनतया पृथगेकिकां धिगियतापि न तेऽङ्गविदारणम् / / 60 // उपहरन्तीति / हे स्मर ! पश्च सुरद्रमाः मन्दारादयः, कस्य सुपर्वणः कति सुम. नसः कियन्ति कुसुमानि, नोपहरन्ति नोपायनीकुर्वन्ति ? सर्वस्याप्यमितमुपहरन्ती