________________ 240 नैषधमहाकाव्यम्। अनुममारेति / हे मार मारक ! पतिप्रतेति प्रथितापि सा रतिः कथं नानुममार कथं नानुमृता ? 'मृते म्रियेत या नारी सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता' इत्यनुस्मरणादिति भावः / अथवा, इयद्भिरेतावद्भिरसंख्यरित्यर्थः / अनाथवधूनां वियोगित्रीणा, वधैः पातकी वं, तया दयितयापि विरहमसहमानयापीति भावः। उज्झितः स्यकोऽसि किमित्युस्प्रेक्षा। 'भा शुद्धःसंप्रतीचयो हि महापातकदूषित' इति स्मरणादिति भावः / / हे पातक कामदेव ! अत्यन्त विख्यात पतिव्रता मी वह रति तुम्हारे बाद क्यों नहीं मर गयो / अर्थात मरकर सती हो गयी ? इतनी (सैकड़ों-नारों) मनाथ स्त्रियों के मारने से पातको तुमको अतिशय प्रिया उस ( रति ) ने भी छोड़ दिया है क्या ?[ सैकड़ों-सहनों भनाथ विरहिणी स्त्रियों की हत्या करनेसे पातकी होने के कारण ही पतिव्रता तथा परमप्रिया होनेपर भी रतिने स्मृति ( याप० 177 ) वचनको मानकर हो तुम्हें छोड़ दिया, अन्यथा वह अवश्यमेव तुम्हारे मरने के बाद सती हो जाती] // 79 // सुगत एव विजित्य जितेन्द्रियस्त्वदुरुकीर्तितनुं यदनाशयत् / तव तनूमवशिष्टवतीं ततः समिति भूतमयीमहरद्धरः // 8 // सुगत इति / जितेन्द्रियो वशी सुगतो बुद्ध एव, विजित्य, तव उरुं महती कीतिः मेव तनुं शरीरं, यद्यस्मादनाशयत् नाशितवान् / ततः कारणादवशिष्टवत्तीमवशिष्ट भूतमी पावभौतिकी तव तनं समिति युद्ध हरः शम्भुरहरत् भस्मीचकारेश्यर्थः / ताथपि निर्लजः कथमिस्थमस्मारशानकरणं यथयसीति विस्मिताः स्म इति भावः // __ जितेन्द्रिय बुद्धने हो तुम्हें जीतकर तुम्हारी बढ़ी हुई कीतिरूपी शरीरको जो नष्ट कर दिया। तदनन्तर जितेन्द्रिय हर (संसारका संहार करनेवाले महादेव) ने युद्ध में विजयकर शेष पात्र भौतिक (पृथिवी आदि पञ्चमहाभूतसे बने हुए) शरीरको हरण किया (जलाया ) / [ यदि जितेन्द्रिय बुद्ध तुमको जीतकर तुम्हारा यश नष्ट नहीं किये होते तो सर्व-संहार-कर्ता शिवजी मी तुम्हें नहीं जला सकते / अथवा-पहले तो बुद्धने तुम्हें जीतकर कीतिको नष्ट किया, फिर भूतमयी (पिशाच-रूपी) देहको महादेवजीने जलाया, इस अर्थमें यशको आत्मा तथा शरीरको पाञ्चभौतिक शरीर माना है, क्योंकि यश तथा मात्मा दोनों अमर एवं निस्य हैं तथा आत्माके शरीर से निकल जानेपर पात्रमौतिक शरीरको जला दिया जाता है / मारने पर भूतमय अर्थात् प्रेतरूप होना लोक तथा शास्त्र में माना जाता हैं ] // 8 // फलमलभ्यत यत्कुसुमैस्त्वया विषमनेत्रमनङ्ग ! निगृह्णता / अहह नीतिरवाप्तभया ततो न कुसुमैरपि विग्रहमिच्छति // 81 // फलमिति / हे अनङ्ग ! विषमनेनं ध्यक्ष, कुसुमैनिगृह्णता निसन्यता प्रहरतेत्यर्थः। स्वया यत्फलं मरणरूपमलभ्यत / ततस्तस्मात् फलादवाप्तभया प्राप्तभया नीतिः, सर्वथा साधनान्तरेणापि वैरनिर्यातनं कार्पमित्येवंरूपा(की), कुमुमैरपि विग्रहं नेच्छति /