________________ नैषधमहाकाव्यम् / इन्धनको जलाकर स्वयं भी बुझ जाती है, उसी प्रकार अपने आप्रय मेरे हृदयको पीस्तिकर अर्थात मुझे मारकर तुम मी कहां रहोगे ? // लोकमें भी कोई व्यक्ति अपने निवास. स्थानको स्वयं नष्ट नहीं करने पर ही सुखी रहता है, अतः स्वाभयभूत मेरे हृदयको पीडित करना तुम्हारे लिये अच्छा नहीं होगा] // 75 // पुरभिदा गमितस्त्वमदृश्यतां त्रिनयनत्वपरिप्लुतिशङ्कया / स्मर ! निरक्ष्यत कम्यचनापि न त्वयि किमक्षिगते नयनत्रिभिः / / 76 / / पुरभिदेति / हे स्मर ! स्वम् अतिगत इति शेषः। अनसिसनिकृष्टस्याचणा दग्धुमशक्यस्वादश्यस्य च दाहायोगादिति भावः। पुरभिदा हरेण, त्रिनयनत्वं ज्यवस्वं, पुम्नादिस्वाण्णत्वाभावः। तस्य परिप्लुतिशङ्कया तृतीयाक्षिवैयर्यभयेने. त्यर्थः / अहश्यतां गमितो नाशं प्रापितः, 'गति बुद्धि'-इत्यादिना भणिकर्तुः कर्मत्वे तत्रैव कः / 'ण्यन्ते कर्तुश्च कर्मण' इति वचनात् / किन्तु, कस्यचनापि यस्य कस्य चिदपि जनस्याक्षिगते हग्गोचरे द्वेष्ये च / 'देष्ये स्वक्षिगतो वध्यः' इत्यमरः / स्वयि विभिन यनैः किं न निरैयत, किमिति न निरीक्षितम् / अतोऽस्य त्रिनयनस्वं व्यर्थः मेवेत्यर्थः / स्वामिगत इव माशाक्षिगतेऽपि त्वयि तृतीयातिनिरीक्षणाभावादपरोपकारिणस्तस्य वैयथ्य, निरीक्षणा देवस्य जितकामस्वादन्येषां तु कामजितस्वादुरप्रे. घयत इति / स्वयि निचयतेत्यत्र कर्मणोऽपि स्मरस्य अनेक शक्तियुक्तस्येति न्यायेन मातरि प्रहृतमित्यादिवदाधारस्वविवक्षायामविवक्षितकमकादीक्षतेर्भावे लकारः / 'प्रसिद्धरविवक्षातः कर्मणोऽकर्मिका क्रिया' इति वचनात // 7 // हे स्मर ! महादेवजीने (अपने) त्रिनयनत्वको अर्थात् तृतीय नेत्रवाला होने की व्यर्थता (या अतिव्याप्तिकी ) माशङ्कासे तुमको अदृश्य ( नष्ट ) कर दिया। (फिर ) तुम्हारे प्रत्यक्ष ( पक्षान्तरमें-द्वेष्य ) होने पर किसे तीन नेत्र ( पक्षान्तर में-क्रोध) हुए अर्थात् किसीको भी नहीं / अथवा--अक्षिगत (देण्य) होने पर कोन त्रिनेत्र अर्थात् क्रोधयुक्त नहीं हुआ, अपितु सभी कोषयुक्त हुए / [ महादेवजीने सोचा कि अभी तो केवल मैं ही त्रिनेत्र हूँ, पर कामदेव यदि अन्य लोगोंका अक्षिगत यानी प्रत्यक्ष ( पक्षान्तरमें-देष योग्य ) होगा तो सभी त्रिनेत्र ( पक्षा०-क्रोधी ) हो जायेंगे तो हमारा त्रिनेत्र ( तीन नेत्रोंवाला) होना व्यर्थ हो जायगा / अत एव उन्होंने तुम्हें जलाकर नष्ट कर दिया कि अब भविष्यमें कामदेव न किसीको अक्षिगत ( प्रत्यक्ष) होगा, न कोई त्रिनेत्र (क्रोधी ) ही होगा, इस प्रकार मेरा त्रिनेत्र होना सफल होगा। यही कारण है कि तबसे कामदेवको देखकर कोई त्रिनेत्र ( कोधी ) नहीं हुआ, अपितु कामदेवके द्वारा मानन्दलाम किया। लोकमें भी कहा जाता है कि 'मैं' तुम्हें देखकर त्रिनेत्र ( क्रोधी ) हो गया, यही कारण है कि क्रोध होनेपर लोगोको आंख लाल हो जाती है, शिवजीकी भांखते भी कामदेव के जलाने के समय लालवर्ण हो अग्नि निकलती थी / लोकमें अब भी क्रोध के कारण आँखसे चिनगारी निककने की बात होग कहा करते हैं ] // 76 //