________________ चतुर्थः सर्गः 237 इति विधोविविधोक्तिविगर्हणं व्यवहितस्य वृथेति विमृश्य सा / अतितरां दधती विरहज्वरं हृदयभाजमुपालभत स्मरम् / / 74 // . इतीति / अतितरामतिमात्रम्, अव्ययादाम्प्रत्ययः। विरहज्वरं दधती सा दम. यन्ती इतीत्थं, व्यवहितस्य विप्रकृष्टस्य, विधोविविधोक्तिभिर्विगर्हणं निन्दा वृथेति विमृश्य, अरण्यरुदितप्रायमिति विचार्य, हृदयमाज सन्निहितं स्मरमुपालभत निनिन्द / पाक्षिकफलसम्भावनयेति भावः // 74 // अत्यधिक विरहज्वरको धारण करती हुई वह दमयन्ती 'अत्यन्त दूरस्थ चन्द्रमाकी अनेक प्रकार के कथन से निन्दा करना व्यर्थ है (उसके स्वयं न सुननेसे मेरी की हुई निन्दा अरण्यरोदन के समान है ), ऐसा विचारकर हृदय ( अत्यन्त समीप ) में नित्य रहनेवाले कामदेवको उपालम्भ देने लगी ( कामदेवको निन्दा करने लगी)।[भपकारी व्यक्तियों में से दूरस्थको उकहना न देकर अत्यन्त निकटस्थ व्यक्तिको उलहना देना उचित समझा नाता है ] // 74 // (द्विजपतिग्रसनाहितपातकप्रभवकुष्ठसितीकृतविग्रहः / विरहिणीवदनेन्दुजिघत्सया स्फुरति राहुरयं न निशाकरः॥१॥)* (द्विजराज ( ब्राह्यण, पक्षान्तरमें चन्द्रमा) के खानेसे स्थापित ( या 'महित' पदच्छेद करने पर 'अहितकर') पापसे उत्पन्न कोढ़से सफेद शरीरवाला ( तथा इस समय) विर. हिणियोंके मुखरूपी चन्द्रमाको खानेकी इच्छासे यह राहु स्फुरित हो रहा है, यह चन्द्रमा नहीं है / [अन्य भी कोई व्यक्ति ब्राह्मणके खानेसे उत्पन्न महापातकसे कुछरोगी हो जाता है, किन्तु वह यदि अत्यधिक दुष्ट होता है तो अपने स्वभावसे विवश होकर फिर उसी दुष्कर्मको करता रहता है ] // 1 // हृदयमाश्रयसे बत मामकं ज्वलयसीत्थमनङ्ग ! तदेव किम् ? / स्वयमपि क्षणदग्र्धानजेन्धनः क भवितासि ? हताश ! हुताशवत् / / 75 // हृदयमिति / हे अना! ममेदं मामकम् / 'तवकममावेकवचने' इत्यणि ममः कादेशः / हृदयमाश्रयसे / तदेवेस्थं किं ज्वलयसि वहसि ? बत। हताश दुर्बुढे! स्वयं स्वमपि, हुतमश्नातीति हुताशोऽग्निः, कर्मण्यण / तद्वत् क्षणदग्धनिजेन्धनो दग्धाश्रयः सन्नित्यर्थः / क्व भवितासि व भविष्यसि 1 न कापीत्यर्थः। अनघतने लुट / परहिसाव्यसनेनात्मनाशं न पश्यसीयाशयेन हताशेत्यामन्त्रणम् // 75 // हे कामदेव ! यदि तुम मेरे हृदयका आश्रय करते हो अर्थात् मेरे हृदय में रहते हो. तब सीको इस प्रकार ( अतिशय एवं निरन्तर ) क्यों जलाते (अपने आश्रयस्थानको नष्ट करते ) हो ? / हे हताश ! ( निष्फल अभिलाषावाले ! ) क्षणभरमें अपने इन्धनको मला देनेवाले अग्नि के समान स्वयं भी तुम कहाँ रहोगे 1 / (जिस प्रकार अग्नि अपने & अयं श्लोक: तिलक सुखावबोधा'ख्यव्यास्ययोरुपलभ्यत इत्यवधातम्यम् /