________________ 220 नैषधमहाकाव्यम्। दो शल्योंको गाडकर विश्वरूप दोनों स्तनोंसे ठोंककर उन्हें दृढ़ करनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है। अन्य भी कोई व्यक्ति खूटा या कीलको गाड़कर उसे दृढ़ करनेके लिये पत्थर मादि किसी कठोर पदार्थ से ठोक देता है। युवावस्था में ही स्तनका बिल्वफलके समान कठिन होना पाया जाता है। अतः उस युवावस्थामें जीने के साथ विरह होना या विरह होनेपर बीना हृदय में गड़े हुए दो कीलों के समान दमयन्तीको अत्यन्त हो. असह्य हो रहा था] // 41 // अतिशरव्ययता मदनेन तां निखिलपुष्पमयस्वशरव्ययात् / स्फुटमकारि फलान्यपि मुञ्चता तदुरसि स्तनतालयुगार्पणा // 42 / / अतीति / तां दमयन्तीम् अतितरां, शरव्ययता शरव्यं लक्ष्यं कुर्वता, शरण्यः शब्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्तालटः शतृप्रत्ययः / अत एव निखिला ये पुष्पमयाः स्वशरास्तेषां ज्ययात् चयात् फलान्यपि मुशता पिता मदनेन तदुरसि भैमीव. चसि, स्तनावेव ताले तालफले, तयोर्यगस्यार्पणा क्षेपः, अकारि / स्फुटमित्युस्प्रेक्षा। शरचये पाषाणादिनापि प्रहरन्तीति भावः // 42 // उस दमयन्तीको अतिशय निशाना बनाते हुए, पुष्पमय सब बाणेंके समाप्त हो आनेसे फलोंको भी छोड़ते हुए कामदेवने मानों उस दमयन्तीके हृदयपर स्तनरूप दो तालफलों को छोड़ा है / [अन्य मी योद्धा बाणों के समाप्त हो जाने पर पत्थर मादि कठिन पदार्थों से शत्रुपर प्रहार करता है। कामदेवके पास पुष्षमय पाँच ही बाण होनेसे उनका शीघ्र समाप्त हो जाने और कोमकतम तथा अल्पसंख्यक पुष्प बाणोंसे शत्रुरूप दमयन्तीपर विजय नहीं पानेसे पत्थर के समान कठिन दो ताल-फलोंसे हृदयमें प्रहार करना उचित एवं स्वामाविक ही है / मय-समी फल पुष्पके बाद ही लगते हैं अतः उनके पुष्पोंको ही बाण बनाकर दमयन्तीपर प्रहार करने के कारण उनके फल नहीं लगे, अत एव विना फूल लगे ही फलनेवाले तालके बड़े-बड़े एवं कठोर फलोंसे हो दमयन्तीके कोमल हृदय अर्थात् मर्मस्थलपर प्रहारकर उसपर विजय पानेकी इच्छा करना कामदेवके लिये स्वाभाविक ही है ] // 42 // अथ मुहुर्बहुनिन्दितचन्द्रया स्तुतविधुन्तुदया च तया बहु / पतितया स्मरतापमये गदे निजगदेऽअविमिश्रमुखी सखी // 43 / / अथेति / अथानन्तरं स्मरतापमये कामज्वररूपे, गदे रोगे 'रोगव्याधिगदामया" इत्यमरः / पतितया मग्नया। अत एक, मुहुः बहु बहुधा, निन्दितचन्द्रया, तस्योः हीपकस्यादिति भावः / मुहुः स्तुतो विधुं तुदतीति विन्धुन्तुदो राहुर्यया तया, विधुः न्सुदस्वादेवेति भावः। 'तमस्तु राहुः स्वर्भानुः संहिकेयो विधुन्तुद इस्ममः / 'विश्वरुषोस्तुद' इति खचप्रत्ययः / 'अरुविषदजन्तस्य मुम्' इति मुमागमः / तया दम. यस्या, अश्रविमिथं मुखं यस्याः सा भनिष्टाशङ्कया सदती सखी, निजगदे निग• दिता / विप्रकृतो अपकर्तारं निन्दति तदपकर्तारस स्तोतीति भावः // 3 // 'काम-सन्ताप-ज्वरमें पड़ी हुई, (अतएव दाहक होनेसे ) बार-बार तथा बहुत चन्द्रमा