________________ 228 नैषधमहाकाव्यम् / असमये मतिरुन्मिषति ध्रुवं करगतैव गता यदियं कुहूः / पुनरुपैति निरुध्य निवास्यते सखि ! मुखं न विधोः पुनरीक्ष्यते / / 57 // . असमय इति / हे सखि ! असमये मतिः कार्यधीः, उन्मिषति उदेति, ध्रवम् / न तु योग्यकाल इत्यर्थः। कुतः, यद्यस्मादियं कुहूः नष्टचन्द्रामावास्या करगता स्वायत्तैव, हस्तनपत्रगता च गता। तदास्तां. पुनरुपैति पुनरागच्छति चेदित्यर्थः। निध्य निवास्यसे स्थाप्यते / तस्य फलमाह-विधोमुखं पुननेष्यते / तस्यास्तबा. शकरवादिति भावः / पापिष्ठस्य तस्यादर्शनमेव फलमित्यर्थः // 57 // हे सखि! निश्चय ही समय में (बेमौके) बुद्धि स्फुरित होती (कोई आवश्यक बात सूझती ) है, क्योंकि हाथमें अत्यन्त पास में भाई हुई ( अथवा-हस्त नक्षत्र में भायी हुई, दिखलाई पढ़ती, वह अमावास्या तिथि ) चली गयी अर्थात् बीत गयी। अस्तु यदि वह फिर भावेगी, तब उसे (प्रार्थना आदि करके ) रोक रखेंगी, जिससे फिर (पापी इस) चन्द्रमाका मुख ही नहीं देखूगी। [अन्य भी कोई सज्जन व्यक्ति पापीका मुख देखना नहीं चाहता] // 57 // अयि ! ममैष चकोरशिशुर्मुनेव्रजति सिन्धुपिबस्य न शिष्यताम् / अशितुमब्धिमधीतवतोऽस्य वा शशिकराः पिबतः कति शीकराः // 58|| अयोति / अयि सखि ! एष मम चकोरशिशुर्विषपरीक्षार्थ गृहसंवर्धितो बाल. चकोरः। यथाहकामन्दक:-'चकोरस्य विरज्येते नयने विषदर्शनात्' इति / पिब. तीति पिवः, 'पाघ्राध्मा' इत्यादिना शतप्रत्यये पिबादेशः। सिन्धोः पिवस्य समुद्र पायिनो मुनेस्गस्यस्य शिष्यतां, न बजतीति काकुः ।'बजतीत्यर्थः / तथा च अयं चकोरचन्द्रं निश्शेषं पास्यतीत्याशयः, न चैतदशक्यमित्याह-अधिमशितुं पातुः मधीतवतः अभ्यस्तवतः अत एव, पिषतः अधिपानप्रवृत्तस्यास्य चकोरस्य, शशि. कराः कति वा शीकराः कतिचिस्कणा इत्यर्थः / अन्न समुद्रपायिनो दण्यापूपिकया शशिकरपानसिद्धरापत्तिरलकाः // 58 // हे सखि ! मेरा यह चकोरका बच्चा समुद्रको पीनेवाले मुनि (अगस्त्य ) का शिष्य नहीं बन जायेगा? भयांत अवश्य बन जायेगा। समुद्रको पीनेकी शिक्षा पाये हुए (समुद्रको) पीते हुए इसके लिये चन्द्र-किरणे कितनी बूंद होंगी अर्थात् अत्यल्प ही होंगी। (चकोरका चन्द्रिका-पान करना लोक-प्रसिद्ध होनेसे यहां 'चकोर-शिशु' कहा गया है, क्योंकि बालकको दी गयी शिक्षा उसे शीघ्र अभ्यस्त होजाती है और यह चकोर-शिशु जब शिक्षित हो पायेगा तब भतिसरलतासे चन्द्रिकाको पी जायेगा, जिससे चन्द्रिकाके अभावमें मुझे सन्ताप नहीं होगा। चकोर विषपरीक्षाके लिये पाला जाता है, विषैले पदार्थको देखनेमात्रसे चकोरकी आंखें लाल होमाती हैं)॥५८ //