________________ चतुर्थः सर्गः 227 शशकलङ्क ! भयङ्कर ! मादृशां ज्वलसि यन्निशि भूतपतिं प्रितः। तदमृतस्य तवेशभूतताऽद्भुतकरी परमूर्धविघननी // 55 // शशकलङ्केति / हे शशकला शशा! माशां वियोगिनामित्यर्थः। भयंकरो. तीति भयङ्कर उद्धेजक ! 'मेघतिभयेषु कुमा' इति खप्रत्यया / 'अहिपत्' इत्यादिना मुमागमः / यद्यस्मात् , भूतपतिं शिवं पिशाचपतिश, श्रितः सन् निशि ज्वलसि प्र. दीप्यसे / ततस्माश्मृतस्यामृतमयस्य मृतेतरस्य च, तव परेषां द्रष्टणां स्वाविष्टानां च, मूर्धविधूननी एकत्र विस्मयादन्यत्रावेशाच शिरःकम्पकरी, ईडशभूनता इत्यंभूत. स्वम् ईशपिशाचरवश, अद्भुतकरी विस्मयकरी। हरशिरोमणेरमृतस्य इव इत्थं प्रज्व. लनात्मकत्वमद्धतमिति वाक्यार्थः। जीवत ईडगलातपिशाचस्वमद्धतमिति व्यङ्गया। हे शशकला (शश-काननवाले) मुझ-जैसी (विरहिणियों या निरपराध अबलाओं) के भयङ्कर ! चन्द्रमा! रातमें भूतपति (पत्रमहाभूतो में प्रधान भाकाश, या प्रमथादि भूतगों के पति भगवान् शङ्कर ) का माश्रय किये हुए तुम को जलाते (विरहिणियोंको सन्तप्त करते ), हो, अभृत (अमृतमय किरणोंवाले या जीवित) तुम्हार। ( भूतावेश वा विरहव्ययाके कारण) दूसरोंके मस्तकको हिलानेवाला इस प्रकारका भूतपना (प्रतपना) माश्चर्यकारक है। [ कोई जीव मरनेपर प्रेत होकर रातमें चलता या स्वखित होता है, बाळकादिके लिये भयकारक होता है और जिसपर वह माविष्ट होता है उस ( भूताविष्ट मनुष्य ) का शिर कांपने लगता है; किन्तु अमृत अर्थात जीवितावस्थामें स्थित किसीका वैसा करना माश्चर्यजनक है / अथबा-अमृत अर्थात् जलमय होनेसे शीतक चन्द्रमाका बलाना (दाहक होना) भाश्चर्यकारक है / अथवा-भूतों अर्थात् प्राणियोंके पति ( पालक) एवं अमृत (सुषा) रूप चन्द्रमा का दुखित अबलाओंको भय दिखाना या रातमें अपनी तेजी (बहादुरी) दिखलाना अनुचित होनेसे पाश्चर्यजनक है / दमयन्तीने सखोके द्वारा अपनी भोरसे चन्द्रमाके प्रति श्लो० 48 से यहां तक उपालम्म दिया] // 55 // श्रवणपूरतमालदलाङ्करं शशिकुरङ्गमुखे सखि ! निक्षिप / किमपि तुन्दिालतः स्थगयत्वमुं सपदि तेन तदुच्छ्वसिमि क्षणम् // 56 // श्रवणेति / हे सखि ! श्रवणपूरः कर्णावतंसः, यस्तमालइलाकुरस्तमालपत्रवस्तं, . शशिकुरङ्गस्य मुखे वक्त्रे, निधिप / तेन दलाकुरेण, सपदि, किमपि कियदपि, तन्दि. लितस्तुन्दिलीकृतः, स्थूलीकृतस्सन् , अमुं शशिनं, स्थगयत छादयतु / तत्तस्मा. देतो, चणमुच्छ्वसिमि प्राणिमि, 'कदादिभ्यः सार्वधातुक' इतीहागमः // 56 // हे सखि ! कर्णपूरक तमाळ-किसलय (तमालका नया पल्लव ) को चन्द्रमाके मृगके मुखमें ( खानेके लिये ) डालो, (जिससे उसे खाकर ) वह कुछ तुन्दिल (बढ़े हुए पेटवाला) होकर चन्द्रमाको आच्छादित करे तो मैं क्षणभर श्वास लूँ। [चन्द्रमा मुझे इतना सताता है कि मैं तनिक श्वास भी नहीं लेने पाती] // 56 //