________________ चतुर्थः सर्गः 233 आता है और विरही स्त्री-पुरुषों को सताया करता है, अतः विष्णुको राहुका शिर काटने. बाला न कहकर विरहियों का शिर काटनेवाला कहना उचित है ] // 66 // स्मरसखौ रुचिभिः स्मरवैरिणा मख मृगस्य यथा दलितं शिरः / सपदि संदधतुर्भिषजौ दिवः सखि ! तथा तमसोऽपि करोतु कः // 6 // स्मरसखाविति / हचिभिः स्मरसखी कायकान्तिभिः स्मरसाशी तन्मित्रेच, दिवो भिषजौ स्ववैधौ, स्मरवैरिणा हरेण, दलितं भिन्नं, मख एव मृगः तस्य मृग. रूपधारिणो मखस्येत्यर्थः / शिरो यथा सपदि संवधतुः संयोजयामामतः / यो यस्य मित्रं स तस्य वरं निर्यासयतीति युक्तम् / किंतु, हे सखि ! कस्तमसो राहोरपि तथा शिरस्सन्धानं करोतु / न कोऽपीत्यर्थः / हरस्य मखमृगशिरश्छेदे पुराणं प्रमाणम्, अश्विनोः पुनस्तरसन्धाने 'ततो वै तौ यज्ञस्य शिरः प्रत्यधत्ताम्' इति श्रुतिः // 67 // हे सखि ! शोमामोंसे कामदेव के मित्र अर्थात् कामदेव के समान शोमावाले स्वर्गके वैद्य अश्विनीकुमारोंने कामशत्रु (शङ्करजी ) के द्वारा मृगरूपधारी यशके शिरको जिस प्रकार शीघ्र जोड़ दिया, उप्त प्रकार (विरहि-वैरी विष्णुके द्वारा काटे गये ) राहुशिरको कौन जोड़े ? / [यशका काम देव तथा कामदेव के अश्विनीकुमार मित्र हैं, अतः 'मित्रका मित्र भी मित्र होता है तथा वह मित्र मित्र-शत्रुद्वारा बिगाड़े हुए कामको ठीक कर देता है' इस सिद्धान्त के अनुसार यशमित्र-( कामदेव- ) मित्र अश्विनीकुमारोंने मित्र-( कामदेव-) शत्रु अर्थात् शङ्करजोके द्वारा मित्र-( कामदेव- ) मित्र अर्थात् यश ( मृगरूपधारी यश ) का काटा गया शिर तत्काल जोड़ दिया, कटे हुए अङ्गको तत्काल जोड़नेसे-उप्स में भी स्वर्गके दो वैद्यों द्वारा जोड़नेसे वह बिल्कुल ठीक हो गया। विरहिणियों का कोई दो की कौन कहे, एक भी अनुभवी चिकित्सक मित्र दृष्टिगोचर नहीं होता, जो विरहि-शत्रु विष्णुद्वारा काटे गये राहुशिरको जोड़ दे, यदि ऐसा होता तो राहु के द्वारा खाया गया चन्द्रमा उसके अठरानल में ही रह जाता और विरहि-जनोंको वह नहीं सताता] // 67 // नलविमस्तकितस्य रणे रिपोर्मिलति किं न कबन्धगलेन वा / मृतिभिया भृशमुत्पततस्तमोग्रहशिरस्तदमृग्हढबन्धनम् // 68 / / नलेति / अथवा, रणे नलेन विमस्त कितस्य तथापि मृतिमिया मरणभयेन भृशमुस्पतत उद्गच्छतो रिपोः, कबन्धगलेन अपमूर्धकलेवरकण्ठेन सह तमोग्रहस्य शिरः, तस्य गलस्यासृजा रक्तेन ढबन्धनं निबिडसंयोगं सत् किं न मिलति न सनग्छते ? तथा च तज्जठराग्निना चन्द्रो जीदिति भावः // 18 // अथवा संग्राम में मरने ( 'धृतिभिया' पाठमें-नलद्वारा पकड़े जाने ) के भयसे अत्यन्त ऊपर उछलते हुए ( तथापि ) नल के द्वारा काटे गये सिरवाले शत्रुके (शिर से रहित) धड़की गर्दन के साथ ( आकाश में तारारूपमें स्थित ) राहुका शिर उस (शिरसे हीन धड़) के रक्तसे अच्छी तरह जुड़कर नहीं मिल जायगा क्या ? / [इसके पूर्ववाले श्लोकमें विरहिजनोंको